सदा गूँजते स्वर संध्या के
ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते,
बसे वसन्त सदा अंतर में,
रात्रि-दिवस का मिलन प्रहर हो
सदा गूँजते स्वर संध्या के !
गुंजित वर्षा काल में बाग
कोकिल के मधुरिम गीतों से,
अंतर उपवन सदा महकता
ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !
समता का जहाँ वायु विचरे
रस की खानों से मधु रिसता,
शशधर उर शीतल आभा दे
भीगा हुआ प्रेम भी झरता !
मानसरोवर के थिर जल में
प्रातः जाग निज मुखड़ा देखे,
गोधूलि में विश्रांति पाता
दिन भर विचरण करता जग में !