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सोमवार, अगस्त 29

सदा गूँजते स्वर संध्या के

 सदा गूँजते स्वर संध्या के


ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 

बसे वसन्त सदा अंतर में, 

 रात्रि-दिवस का मिलन प्रहर हो

  सदा गूँजते स्वर संध्या के !


गुंजित वर्षा काल में बाग 

कोकिल के मधुरिम गीतों से,

अंतर उपवन सदा महकता 

ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !


समता का जहाँ वायु विचरे

रस की खानों से मधु रिसता,

शशधर उर शीतल आभा दे 

भीगा हुआ प्रेम भी झरता !


मानसरोवर  के थिर जल में 

प्रातः जाग निज मुखड़ा देखे,

गोधूलि में विश्रांति पाता 

दिन भर विचरण करता जग  में  !


मंगलवार, दिसंबर 7

संध्या बेला

संध्या  बेला  

तमस की काली रात्रि 
अथवा रजस का उजला दिन 

दोनों रोज ही मिलते हैं 

अंधकार और प्रकाश के 

इस खेल में हम नित्य ही स्वयं को छलते हैं 

चूक जाती है दोनों के 

मिलन की सन्ध्या बेलायें 

जब प्रकाश और तम एक-दूसरे में घुलते हैं 

उस सलेटी आभा में 

सत छिपा रहता है 

पर कभी अँधेरा कभी उजाला 

उसे आवृत किये रहता है 

वही धुधंला सा उजास ही 

उस परम की झलक दिखाता है 

जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी 

तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है 

न प्रमाद न क्रिया जब मन को लुभाती है

तब ही उसकी झलक मिल पाती है  !


शुक्रवार, अक्टूबर 29

टेर लगाती इक विहंगिनी

टेर लगाती इक विहंगिनी


इन्द्रनील सा नभ नीरव है

लो अवसान हुआ दिनकर का,

इंगुर छाया पश्चिम में ज्यों  

हो श्रृंगार सांध्य बाला का !


उडुगण छुपे हुए जो दिन भर

राहों पर दिप-दिप दमकेंगे,

तप्त हुई वसुधा इतरायी

शीतलता चंद्रमा देंगे !


उन्मीलित से सरसिज सर में

सूर्यमुखी भी ढलका सा है,

करे उपराम भास्कर दिन का 

अमी गगन से छलका सा है !


कर-सम्पुट  में भरे पुष्पदल

संध्या वन्द करें बालाएं,

कन्दुक खेलें बाल टोलियाँ

लौट रहीं वन से चर गाएं !


तिमिर घना ज्यों कुंतल काले

संध्या सुंदरी के चहुँ ओर,

टेर लगाती इक विहंगिनी

केंका करते लौटें मोर !




बुधवार, दिसंबर 9

जीवन


जीवन


दुःख जैसा लगता ऊपर से
भीतर सुख की खान छिपाए
जीवन एक तिलिस्म अनोखा !

सदा विरोधी सा लगता पर
दिवस ही संध्या में ढल जाये
जीवन एक मिलन अनोखा !

मौन खड़ा पर्वत भी मुखरित
निर्झर मुख से गीत सुनाये
जीवन एक नाद अनोखा !

मृदु से मृदु स्वाद मिल सकता
तिक्त फलों को भी उपजाए
जीवन एक सृजन अनोखा !




शुक्रवार, जून 5

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें


रोज भोर में
चिड़िया जगाती है
झांकता है सूरज झरोखे से
पवन सहलाती है
दिन चढ़े कागा
पाहुन का लाये संदेस
पीपल की छाँव
अपने निकट बुलाती है
गोधूलि तिलक करे
गौ जब रम्भाती है
झींगुर की रागिनी
संध्या सुनाती है
नींद में मद भरे
रातरानी की सुवास
प्रातः से रात तक
प्रकृति लुभाती है !

नदियाँ दौड़ती हैं सागर तक
देती सौगातें राह भर
अवरुद्ध करे निर्मल धारा
मानव क्यों स्वार्थ कर
अपना ही भाग्य हरे
प्रकृति का चीर हरे !

मंगलवार, जुलाई 22

टेर लगाती इक विहंगिनी

टेर लगाती इक विहंगिनी




इन्द्रनील सा नभ नीरव है
लो अवसान हुआ दिनकर का,
इंगुर छाया पश्चिम में ज्यों  
हो श्रृंगार सांध्य बाला का !

उडुगण छुपे हुए जो दिन भर
राहों पर दिप-दिप दमकेंगे,
तप्त हुई वसुधा इतरायी
शीतलता चंद्रमा देंगे !

उन्मीलित से सरसिज सर में
सूर्यमुखी भी ढलका सा है,
करे उपराम भास्कर दिन का 
अमी गगन से छलका सा है !

कर-सम्पुट  में भरे पुष्पदल
संध्या वन्द करें बालाएं,
कन्दुक खेलें बाल टोलियाँ
लौट रहीं वन से चर गाएं !

तिमिर घना ज्यों कुंतल काले
संध्या सुंदरी के चहुँ ओर,
टेर लगाती इक विहंगिनी
केंका करते लौटें मोर !



सोमवार, नवंबर 11

कोई

कोई

हर प्रातः सूर्य किरणों पर चढ़
पुहुपों के अंतर को छूकर
ओस कणों से ले नरमी
खग पाखों से ले गरमी
 कोई वसुंधरा पर उतरे !

हर साँझ रंग आंचल में भर
वृक्षों की फुनगी पर जाकर
रिमझिम फुहार से ले नमी
सतरंगी आभा पा थमी  
कोई नजर नयन में कांपे !

हर रात्रि चाँदनी वसन ओढ़
जुगनू की नीली छवि छूकर
संध्या तारे से ले चमक
ढलते सूरज से ले दमक
कोई दूर क्षितिज से झांके !

अंतर ऊष्मा से स्पन्दित हो
 पर दुःख से द्रवीभूत कातर
ले उच्छ्वासों से असीम वेग
 श्वासों से ऊर्जित संवेग
कोई कवि कंठ बन गाए !



  


बुधवार, मई 25

संध्या राग


संध्या राग

मसूर की दाल के से
गुलाबी बार्डर वाले
 सुरमई बादल
मानो संध्या ने पहनी हो नई साड़ी
 कुहू-कुहू की तान गुंजाती ध्वनि  
और यह मंद पवन
जाने किस-किस बगिया के
फूलों की गंध लिये
आती है,
ऐसे में लिखी गयी यह पाती
किसके नाम है
क्या तुम नहीं जानते ?
तुम जो भर जाते हो अन्जानी सी पुलक
शिराओं में सिहरन और उर में एक कसक
विरह और मिलन एक साथ घटित होते हैं जैसे
आकाश में एक ओर ढलता है सूरज
तो दूसरी ओर उगता है चाँद !
हरीतिमा में झांकता है तुम्हारा ही अक्स
हे ईश्वर !या तो तुम हो.. या तुम्हारी याद.....

अनिता निहालानी
२५ मई २०११



रविवार, मई 1

गर्मियों की शाम सुंदर


गर्मियों की शाम सुंदर


छू रही गालों को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए अम्बर पे देखो झूमते से श्याम घन

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कोई कोकिल गा रही

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें

छू रही बालों को आके कर रही अठखेलियाँ
जाने किसको छू के आयी लिये नव रंगरेलियाँ

चैन देता है परस और प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठा एक चितेरा कूंची नभ पर है चलाता

झूमते पादप हंसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पत्ते खिलखिला गुड़हल मगन

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो

दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो


अनिता निहालानी
१ मई २०११

मंगलवार, जून 1

ग्रीष्म की एक संध्या

ग्रीष्म की एक संध्या

छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !

छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ
जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !

चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !

झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !

अनिता निहालानी
१ जून २०१०