गुरुवार, दिसंबर 30

नए वर्ष में नए स्वप्न हों

नए वर्ष में नए स्वप्न हों 


उजाला ही उजाला हर सूँ 

हम आँखें मूँदे बैठे है, 

प्रकृति-पुरुष का नर्तन चलता 

हम अँधियारे में बैठे हैं !


शिव का तांडव लास्य उमा का 

दोनों  साथ-साथ चलते हैं,  

भूकंप कहीं तूफां भीषण 

कहीं सुगंधित वन खिलते हैं !


यह सृष्टि बनी  है क्रीडाँगन 

दिव्य चेतना शुभ मेधा की, 

नित्य नवीन रहस्य खुल रहे 

है अनंत प्रतिभा दोनों की !


हो जाए लय मन इस क्रम में 

श्वास-श्वास यह भरे प्रेम से, 

यही ऊर्जा बिखर चमन में 

भाव तरंग, वाणी, कृत्य से !


नए वर्ष में नए स्वप्न हों 

नव उमंग कुछ नया हर्ष हो, 

छोड़ दिया जिसको  भी पथ में 

साथ उसे लें यह विमर्श हो !


मंगलवार, दिसंबर 28

हो निशब्द जिस पल में अंतर


हो निशब्द जिस पल में अंतर

शब्दों से ही परिचय मिलता

उसके पार न जाता कोई,

शब्दों की इक आड़ बना ली

कहाँ कभी मिल पाता कोई !

 

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है

शब्द हमें आपस में जोड़ें,

किन्तु कवच सा पहना इनको

बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

 

भीतर सभी अकेले जग में

खुद ही खुद से बातें करते,

एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के

बैठ वहीं से घातें करते !

 

खुद से ही तो लड़ते रहते

खुद को ही तो घायल करते,

खुद को सम्बन्धों में पाके

खुद से ही तो दूर भागते !

 

हो निशब्द जिस पल में अंतर

एक ऊष्मा जग जाती है,

दूजे के भी पार हुई जो

उसकी खबर लिए आती है !

 

दिल से दिल की बात भी यहाँ

उसी मौन में घट जाती है,

शब्दों की सीमा बाहर है

भीतर पीड़ा छंट जाती है !

 

कोरे शब्दों से न होगा

मौन छुपा हो भीतर जिनमें,

वे ही वार करेंगे दिल पर

सन्नाटा उग आया जिनमें !


शनिवार, दिसंबर 25

संकरा है वह द्वार प्रभु का


संकरा है वह द्वार प्रभु का

क्रिसमस उसकी याद दिलाता
जो भेड़ों का रखवाला था,
आँखें करुणा से नम रहतीं
मन जिसका मद मतवाला था !

जो गुजर गया जिस घड़ी जहाँ
फूलों सी महकीं वे राहें,
दीनों, दुखियों की आहों को
झट भर लेती उसकी बाहें !

सुन यीशू उपदेश अनोखे
 भीड़ एक पीछे चलती थी,
 अधिकार से भरे कहते थे 
 चकित हुई सी वह गुनती थी !

नहीं रेत पर महल बनाओ  
जो पल भर में ही ढह जाते,
चट्टानों पर नींव पड़ी तो  
गिरा नहीं सकतीं बरसातें !

यहाँ मांगने से मिलता है
खोला जाता है सदा द्वार,
ढूँढेगा जो, पायेगा ही
 लुटाने को प्रभु है तैयार !

कितने रोगी स्वस्थ हुए थे
अनगिन को दी उसने आशा,
तूफानों को शान्त किया था
अद्भुत थी जीसस की भाषा !

प्रभु के प्यारे पुत्र कहाते
जन-जन की पीड़ा, दुःख हरते,
एक बादशाह की मानिंद 
संग शिष्य  के डोला करते !

जो कहते थे, पीछे आओ
सीखो तुम भी मानव होना,
बेटा हूँ प्रिय परमेश्वर का 
मार्ग जानता सहज स्वर्ग का !

संकरा है वह द्वार प्रभु का
 उससे ही होकर जाना है,
यीशू ने जो बात कही थी
हमको उसे आज़माना है ! 


गुरुवार, दिसंबर 23

अभी मिलन घट सकता उससे

अभी मिलन घट सकता उससे 


 ना  अतीत जंगल के उगते  

ना उपवन भावी के जिसमें, 

वर्तमान का पुष्प अनोखा 

खिलता उसी मरूद्यान में !


एक स्वप्न से क्या मिल सकता 

जिससे ज़्यादा ना दे अतीत, 

जाल कल्पना का भी मिथ्या 

भावी के सदा गाता गीत !


एक बोझ का गट्ठर लादे 

कितना कोई चल सकता है, 

यादों का सैलाब डुबाता 

भव सागर कब तर सकता है !


कल की फ़िक्र आज को खोया 

संवरे अब बने कल सुंदर, 

इस पल में हर राज छुपा है 

पहचानें  ! क्यों टालें कल पर !


अभी-अभी इक सरगम फूटी 

अभी अभी बरसा है बादल, 

अभी मिलन घट सकता उससे 

है परे काल से सदा अटल !




शनिवार, दिसंबर 18

सन्नाटे का पुष्प अनोखा


सन्नाटे का पुष्प अनोखा 


खो जाते हैं प्रश्न  सभी का 

इक ही उत्तर जब मिलता है, 

सन्नाटे का पुष्प अनोखा 

अंतर्मन में तब खिलता है !


उर नि:शब्द, नीरवता छायी 

बस होना पर्याप्त हुआ है, 

उसी मौन में भीतर घटता 

अद्भुत इक संवाद हुआ है !


क्या कहना, क्या सुनना है अब 

भेद खुले हैं सारे उसके, 

जान जान जाना ना जाए 

गढ़ते सब क़िस्से हैं जिसके !


चुप रहकर या सब कुछ कहकर 

नहीं ज्ञान हो सकता उसका, 

वही ज्ञान है वह है ज्ञाता 

बस इतना कोई कह सकता !

गुरुवार, दिसंबर 16

जीवन मिलता है पग-पग पर

जीवन मिलता है पग-पग पर 


एक शृंखला चलती आती 

अंतहीन युग बीत गए हैं, 

इच्छाओं को पूरा करते 

हम खुद से ही रीत गये हैं !


प्रतिबिंबों से आख़िर कब तक 

खुद को कोई बहला सकता, 

सूरज के सम्मुख ना आए 

मन पाखी मरने से डरता !


जीवन मिलता है पग-पग पर 

कब तक रहें गणित में उलझे, 

हर पूजा की क़ीमत चाहें 

दुविधा उर की क्योंकर सुलझे !


धूप, हवा, जल, अम्बर बनकर 

बँटता ही जाता है रहबर, 

आनंदित होते रहते हम 

छोटे से दामन में भरकर !


शनिवार, दिसंबर 11

अपने दिल का द्वार खोल दें

अपने दिल का द्वार खोल दें


आज वक्त से वादा कर लें 

नव विश्वास आस नव भर लें, 

हर सिलवट को झाड़ मनों से 

जीवन पथ उजियाला कर लें !


चंद घड़ी जो पास हमारे 

तंद्रा-नींद  तमस न घेरे,  

पल-पल उसका सदा सँवारें 

अकर्मण्यता न डाले डेरे !


मन सपनों में ‘कोई’ जागा 

 टूटे नहीं कभी वह धागा, 

जिसमें कृष्ण पिरोए जग को 

तुलसी सहज विमल अनुरागा !


उसी एक का साथ मिले अब 

गरल भी अमृत बनकर छलके, 

खो जाए पीड़ा अभाव तब

पथ की हर बाधा वह हर ले !


द्वार खुला है निशदिन उसका 

अपने दिल का द्वार खोल दें, 

बरस रहा जो मधु फुहार  बन 

हटा आवरण उर में भर लें !




मंगलवार, दिसंबर 7

संध्या बेला

संध्या  बेला  

तमस की काली रात्रि 
अथवा रजस का उजला दिन 

दोनों रोज ही मिलते हैं 

अंधकार और प्रकाश के 

इस खेल में हम नित्य ही स्वयं को छलते हैं 

चूक जाती है दोनों के 

मिलन की सन्ध्या बेलायें 

जब प्रकाश और तम एक-दूसरे में घुलते हैं 

उस सलेटी आभा में 

सत छिपा रहता है 

पर कभी अँधेरा कभी उजाला 

उसे आवृत किये रहता है 

वही धुधंला सा उजास ही 

उस परम की झलक दिखाता है 

जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी 

तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है 

न प्रमाद न क्रिया जब मन को लुभाती है

तब ही उसकी झलक मिल पाती है  !


सोमवार, दिसंबर 6

एक अमिट मुस्कान छिपी है

एक अमिट मुस्कान छिपी है 

एक अमिट मुस्कान छिपी है 

उर अंतर की गहराई में, 

वह मनमोहन यही चाहता 

उसे खोज लें फिर बिखरा दें !


चलना है पर चल न पाए 

भीतर एक कसक खलती है, 

उस पीड़ा के शुभ प्रकाश में 

इक दिन हर बाधा टलती है !


मीलों का पथ तय हो जाता 

यदि संकल्प जगा ले राही, 

हाथ पकड़ लेता वह आकर 

जिसने उसकी सोहबत चाही !


अल्प बुद्धि छोटा सा मन ले 

जीवन को हम कहाँ समझते, 

जन्म-मरण सदा एक रहस्य 

आया माधव यही बताने  !


कण-कण में जो रचा बसा है, 

प्रीत सिखाने जग में आया 

अपनी शुभता करुणा से वह 

मानव को हरषाने आया !

शनिवार, दिसंबर 4

सेहत का है राज यही, नहीं भूलना इन्हें कभी


सेहत का है राज यही, नहीं भूलना इन्हें कभी 


समय पे सोना औ' जागना 

बात-बात पर दुखी न होना, 

थोड़ा सा ही पौष्टिक भोजन 

आसन, प्राणायाम साधना !


दर्द कभी हो कहीं देह में 

यह तन की पुकार है सुनना,  

उलझे से हों ग़र विचार तो 

यह मन का विकार है गुनना !


क्रोध जगे तो ज़रा ठहरना 

वातावरण प्रदूषित करता, 

गहरी चंद सहज श्वासें ले

अंतर्मन को ख़ाली करना !


जीवन एक उपहार प्रभु का 

सत्यम शिव सुंदर जब होगा, 

मन उत्साहित शरीर ऊर्जित 

हर पल तब ही सुखद बनेगा !





मंगलवार, नवंबर 30

हम खुद में कितने रहते हैं


हम खुद में कितने रहते हैं 


गौर किया है कभी ठहर कर 

इत-उत क्यों डोला करते हैं 


कभी यहाँ का कभी वहाँ का 

हाल व चाल लिया करते हैं 


बस खुद का ही रस्ता भूले 

दुनिया भर घूमा करते हैं 


सब इस पर निर्भर करता है 

हम खुद में कितने रहते हैं 


मन में हैं पूरे के पूरे 

कमियों का रोना रोते हैं 


अपनी हालत जानें खुद से 

राज यही भूला करते हैं 


खो जाता है मन आ खुद में 

हम ही रूप धरा करते हैं 


सोमवार, नवंबर 29

चाहे तो

चाहे तो 


कभी कुछ भी नहीं बिगड़ता इतना

कि सुधारा ही न जा सके 

एक किरण आने की 

गुंजाइश तो सदा ही रहती है !

माना  कि अंधेरों में कभी 

विष के बीज बो डाले थे किसी ने 

फसल नष्ट कर दे

कुदरत इतनी दयावान तो 

हो सकती है !

यहाँ अंगुलिमाल भी 

घाटे में नहीं रहता सदा के लिए 

किसी रत्नाकर की क़िस्मत 

पलट सकती है !

न भय न अफ़सोस जता 

कि बात बिगड़ी हुई 

इसी पल में बन सकती है 

संकल्प में शक्ति जगे तो 

पर्वत भी मार्ग दे देते हैं 

हर मात शह में टल सकती है 

जब ‘वही’ है सूत्रधार इस नाटक का 

चाहे तो पर्दा गिरने से पहले 

भूमिका बदल सकती है !




रविवार, नवंबर 28

कहानी एक दिन की

कहानी एक दिन की

दिनकर का हाथ बढ़ा

उजियारा दिवस चढ़ा,

अंतर में हुलस उठी

दिल पर ज्यों फूल कढ़ा !


अपराह्न की बेला

किरणों का शुभ मेला,

पढ़कर घर लौट रहे

बच्चों का है रेला !


सुरमई यह शाम है

तुम्हरे ही नाम है,

अधरों पर गीत सजा

दूजा क्या काम है !


बिखरी है चाँदनी

गूंजे है रागिनी,

पलकों में बीत रही

अद्भुत यह यामिनी !


शुक्रवार, नवंबर 26

जाग भीतर कौन जाने

जाग भीतर कौन जाने  


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज में कल जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की सुनाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !


बुधवार, नवंबर 24

नया दिन

नया दिन 


मिलता है कोरे काग़ज़ सा 

हर नया दिन 

जिस पर इबारत लिखनी है 

ज्यों किसी ख़ाली कैनवास पर 

रंगों से अनदेखी आकृति भरनी है 

धुल-पुंछ गयीं रात की बरसात में 

मन की गालियाँ सारी 

नए ख़्यालों की जिनसे 

बारात गुजरनी है 

हरेक दिन 

एक अवसर बनकर मिला है 

कई बार पहले भी 

कमल बनकर खिला है 

हो जाता है अस्त साथ दिनकर के 

पुनः उसके उजास में 

 कली उर की खिलनी है 

जीवन एक अनपढ़े उपन्यास की तरह 

खुलता चला जाता है 

कौन जाने किस नए पात्र से 

कब मुलाक़ात करनी है 

हर दिन कोई नया ख़्वाब बुनना है 

हर दिन हक़ीक़त भी 

अपनी राह से उतरनी है 

अनंत सम्भावनाओं से भरा है जीवन 

कौन जाने कब किसकी 

क़िस्मत पलटनी है !