शुक्रवार, जुलाई 28

थम जाता सुन मधुर रागिनी

थम जाता सुन मधुर रागिनी

कोमल उर की कोंपल भीतर
खिलने को आतुर है प्रतिपल,
जब तक खुद को नहीं लुटाया
दूर नजर आती है मंजिल !

मनवा पल-पल इत-उत डोले
ठहरा आहट पाकर जिसकी,
जैसे हिरण कुलाँचे भरता
थम जाता सुन मधुर रागिनी !

जिसके आते ही उर प्रांगण
देव वाटिका सा खिल जाता,
हौले-हौले कदम धरे जब
मन नव कुंदन बन मुस्काता !

स्वयं ही दूर-दूर रहे हम
दुःख छाया में जन्मों बीते,
सुख बदली बन वह आता है
एक पुकार उठे अन्तर से !

रह ना पाए अनुपम प्रेमिल
पावन है वह करता पावन,
अर्पित मन को करना होगा
युग-युग से हो रहा अपावन !

आह्लादित है सृष्टि प्रतिपल
खिला हुआ वह नील कमल सा,
धरे धरा बन छाँव गगन की
पंछी सा नव सुर में गाता !

कोई उसका हाथ थाम ले
बरबस कदमों में झुक जाये,
दूरी नहीं भेद नहीं शेष
तृप्त हुआ सा डोले गाये !


सोमवार, जुलाई 24

कविता हुंकारना चाहती है

कविता हुंकारना चाहती है

छिपी है अंतर के गह्वर में
या उड़ रही है नील अंतरिक्ष की ऊँचाईयों में
घूमती बियाबान मरुथलों में
या डुबकी लगाती है सागर की गहराइयों में
तिरती गंगा की शांत धारा संग
कभी डोलती बन कावेरी की ऊंची तरंग
खोज रही है अपना ठिकाना
झांकती नेत्रों में... नहीं उसके लिए कोई अजाना
 घायल हो सुबकती हिंसक भीड़ देख
पड़ जाती मस्तक पर नहीं मिटने वाली रेख
 पूछती कितने सवाल
क्यों धर्म, जाति और देश की
हदों के नाम पर इतना बवाल
तोड़ कर हर घेरा झाँकना चाहती है
जातीयता की संकीर्ण दीवारों के पार
शांति की मशाल बन जलना चाहती है
बरसना चाहती है शीतल फुहार बनकर
जला दिए जिनके स्कूल
चंद सिरफिरे वहशी दरिंदों ने
उन मासूमों के गाँव पर
उनके जमीरों के भीतर भी ढूँढना चाहती है
इंसानियत की एक खोयी किरण
सोये हुए लोगों को जगाने के लिए
अमन और चैन की हवा बहाने के लिए
आंधी बनकर घुमड़ना चाहती है
गरज-गरज कर
कविता हुंकारना चाहती है !

शनिवार, जुलाई 15

उन अँधेरों से डरें क्यों

उन अँधेरों से डरें क्यों


खो गया है घर में कोई चलो उसे ढूँढ़ते हैं
बह रही जो मन की सरिता बांध कोई बाँधते हैं

आँधियों की ऊर्जा को पाल में कैसे समेटें 
उन हवाओं से ही जाकर राज इसका पूछते हैं

इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास अपने
उन अँधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं

हँसे पल में पल में रोए मन शिशु से कम नहीं है
दूर हट के उस नादां की हरकतें हम देखते हैं

कुछ नहीं है पास खुद के बाँस जैसी खोखली जो
उस अकड़ को शान से चेहरे बदलते देखते हैं  

बुधवार, जुलाई 12

गाना होगा अनगाया गीत

गाना होगा अनगाया गीत


गंध भी प्रतीक्षा करती है
उन नासापुटों की, जो उसे सराहें
प्रसाद भी प्रतीक्षा करता है
उन हाथों की, जो उसे स्वीकार लें
जो मिला उसे बांटना होगा
होने को आये जो हो जाना होगा
गाना होगा अनगाया गीत
लुटाना होगा वह कोष भीतर छुपा   
पलकों में बंद ख्वाबों को,
रात्रि का अँधकार नहीं सुबह का उजाला चाहिए
अंतर में भरी नर्माहट को शब्दों का सहारा चाहिए
गर्माहट जो सर्दियों की धूप गयी थी भर 
अलस जो भर गयी तपती दोपहर,
उन्हें उड़ेंलना होगा
बचपन में मिले सारे दुलार को
किस्सों में सुने परी के प्यार को
चाँद पर चरखा कातती बुढ़िया
रोती-हँसती सी जापानी गुड़िया
देख-देख कर जो मुस्कान की कैद हृदय में
उसे बिखराना होगा
बारिश की पहली-पहली बौछार में
भीगने का वह सहज आनंद
हृदय में लिए नहीं जाना होगा
इस जग ने कितना-कितना भर दिया है
मनस को उजागर कर दिया है
पिता की कहानियों का वह जादूगर
जो उगाता था सोने के पेड़ और चाँदी के फल
जीवन में पाए अनायास ही वे अमोल पल
अंतहीन वक्त की कोरी चादर पर
कुछ अमोल बूटे काढ़ने हैं
राह दिखाएँ भटके हुओं को
ऐसे कई और दीपक बालने हैं !

सोमवार, जुलाई 10

मानव और परमात्मा


मानव और परमात्मा

मुक्ति की तलाश करे अथवा ऐश्वर्यों की
परमात्मा होना चाहता है मानव
या कहें ‘व्यष्टि’ बनना चाहता है ‘समष्टि’
प्रभुता की आकांक्षा छिपी है भीतर
पर कृपण है उसका स्नेह
जो प्रेम में नहीं बदलता
बदल भी गया तो धुंधला-धुंधला है  
पावन है यदि प्रेम तो धुआं नहीं देगा दर्द का
अग्नि सम जला देगा हर द्वैत को
जिसकी चट्टान ही
नहीं पनपने देती आत्म के बीज को 
  जो खिलकर अस्तित्त्व से एक हो  
धरा-आकाश, जड़-चेतन से एक
शुद्ध प्रेम ही खिलायेगा श्रद्धा का फूल
  उड़ेल दी श्रद्धा जब उसके चरणों में
तब जन्मेगी भक्ति
  बनेगा भक्त.. भगवान भी उसी क्षण !

रविवार, जुलाई 9

गुरू पूर्णिमा के अवसर पर


गुरू पूर्णिमा के अवसर पर


युगों-युगों से राह दिखाते
उर-अंतर का तमस मिटाते,
ज्योति शिखा सम सदा प्रज्ज्वलित
सीमाओं में नहीं समाते !

प्रेम, ज्ञान, सुख पुंज शांति के
सुमन खिलाते परा भक्ति के
बिना भेद दिल से अपनाया
बंधन तोड़कर आसक्ति के !

विश्व बना परिवार तुम्हारा
सदा साथ रह बने सहारा
हो अनंत अनंत से मिलकर
सागर भी तुम तुम्हीं किनारा !

अपना जान तुम्हें जो भजता
शांति, ज्ञान से दामन भरता,
बाहर जो सुख ढूँढ़ रहा था
खुद के भीतर ही पा जाता !

जीवन मर्म, भेद समझाया
तुमने अपना आप दिखाया,
दुःख, पीड़ा आते-जाते हैं
सत्य शाश्वत ज्ञान बरसाया !

तुम क्या हो बस तुम्हीं जानते
निरख अदा हम वारी जाते,
जो आत्म निर्दोष है भीतर
उसकी आहट पा खिल जाते !

गुरू पूर्णिमा साँझ दिव्य है
महिमा गुरू की नित भव्य है,
नतमस्तक हो नमन करें हम
चरण धूलि गुरू की सेव्य है ! 

शनिवार, जुलाई 8

जादूगर और माया


जादूगर और माया


चला आता उसी तरह दुःख पीछे सुख के
जैसे आदमी के पीछे उसकी छाया
भर दामन में ख़ुशी बाँटने निकले कोई
तो बदल देती है गमों में उसको माया
भरें हर्जाना यदि चाहा सुख कण भर भी
चुकायें कीमत हर आसक्ति हर मोह की
कुछ भी यहाँ मुफ्त नहीं मिलता
बिना एक हुए माटी से कोई बीज नहीं खिलता
जब चाह जगे भीतर सत् को पाने की
तब जाकर ही इस खेल की पहचान होगी
भीतर जाने कौन से गह्वर में रहता है इक जादूगर
जिसे रास नहीं आता तिल भर भी नकार
दिखाता है वही तो आईना बार-बार !


शुक्रवार, जुलाई 7

यहाँ दो नहीं हैं


यहाँ दो नहीं हैं

हर बार जब मैंने तुम्हें चाहा है
खुद को ही पसंद किया है
हर बार जब तुम्हारी किसी बात को सराहा है
अपनी पीठ थपथपाई है
हर कोई खुद से प्यार करे
तो कितनी हसीन हो जाये यह दुनिया
हर बार जब मैं तुम से दूर हुई
खुद से ही दूर हुई हूँ
हर शिकायत जो मैंने तुमसे की है
दरअसल वह अपने आप से की है
हर शूल जो मैंने तुम्हें चुभोया है
मेरे ही दिल में घाव बनकर कसक दे गया है
यहाँ हर कोई खुद से ही मुखातिब है
हम स्वयं को नहीं चाहते  
और इल्जाम दूसरों पर लगाये जाते हैं
खुद को सीधे-सीधे सता भी तो नहीं सकते
किसी के द्वारा खुद को सताये जाने का
इंतजाम भी खुद ही कर लेते हैं
यहाँ दो नहीं हैं
तुमसे जुड़ी हर बात खुद से ही जुड़ी थी
यहाँ केवल तुम ही तुम हो या केवल मैं ही मैं
यहाँ दो नहीं हैं ! 

गुरुवार, जुलाई 6

बन जाता वह खुद ही मस्ती


बन जाता वह खुद ही मस्ती 

मस्ती की है प्यास सभी को
हस्ती की तलाश सभी को

मस्ती जो बिछड़े न मिलकर
हस्ती जो बोले बढ़चढ़ कर

दोनों का पर जोड़ नहीं है
इस सवाल का तोड़ नहीं है

हस्ती मिटे तो मस्ती मिलती
यह सूने अंतर में खिलती

हस्ती तो है एक उसी की
मस्ती जिसके नाम में बसती

मिटा दी जिसने खुद की हस्ती

बन जाता वह खुद ही मस्ती 

बुधवार, जुलाई 5

थामता है हर घड़ी वह


थामता है हर घड़ी वह

बूँद बनकर जो मिला था
सिंधु सा वह बढ़ा आता,
रोशनी की इक किरण था
बन उजाला पथ दिखाता !

थामता है हर घड़ी वह
जो बरसता प्रीत बनकर,
खोल देता द्वार दिल के
फिर सरसता गीत बनकर !

हर नुकीली राह को भी
मृदु गोलाई में बदले,
कंटकों से जो भरी थी
मधु अमराई में बदले !

बस गया है आज दिल में
डाल डेरा और डंडा,
दूर से जो था पुकारे
मिल गया उसका ठिकाना !


सोमवार, जुलाई 3

जीवन की शाम

जीवन की शाम 

कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता

मकड़जाल जो खुद ही बुना है
और अब जिसमें दम घुटता है
जमीनें जो कभी खरीदी गयीं थी
इमारतें जो कभी बनवायी गयी थीं
जिनमें कोई नहीं रहता अब
जो कभी ख़ुशी देने की बनीं थीं सबब
अब बनी हैं जी का जंजाल
घड़ी विश्राम की आयी
 समेटना है संसार !

हाथों में अब वह ताकत नहीं
पैरों को राहों की तलाश नहीं
अब तो मन चाहता है
सुकून के दो चार पल
और तन चाहता है
इत्मीनान से बीते आज और कल
खबर नहीं परसों की भी
कौन करे बात बरसों की
बिन बुलाये चले आते हैं
कुछ अनचाहे विचार आसपास
 होने लगा है कमजोरी का अहसास

पहले की सी सुबह अब भी होती है
सूरज चढ़ता है, शाम ढलती है
पर नहीं अब दिल की हालत सम्भलती है
कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता !

उन सभी बुजुर्गों को समर्पित जो वृद्ध हो चले हैं.