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मंगलवार, जून 30

लिखे जो खत तुझे

लिखे जो खत तुझे 

हाथ से लिखे शब्द 
मात्र शब्द नहीं होते 
उनमें हृदय की संवेदना भी छिपी होती है 
मस्तिष्क की सूक्ष्म तंत्रिकाओं का कम्पन भी 
गहरा हो जाता है कभी कोई शब्द
कभी कोई हल्का 
कभी व्यक्त हो जाती है उनमें 
लिखने वाले की ख़ुशी 
कभी दर्द 
जो एक बूंद बन छलक जाये  
क्यों न हम फिर से लिख भेजें संदेश
स्वयं के गढ़े शब्दों से 
चाहे वे कितने ही अनगढ़ क्यों न हों 
न हो उनमें कोई दार्शनिकता या कोई सीख 
बस वे हमारे अपने हों 
क्यों न पुनः पत्र लिखें
 अपने हाथों से 
चाहे चन्द पंक्तियाँ ही
 कोरी, खालिस अपने मन से उपजी 
शुद्ध मोती की तरह पावन !


सोमवार, मई 4

है भला वह कौन

है भला वह कौन 


वह नीलमणि सा प्रखर मनहर 
गुंजित करता किरणों के स्वर,
शब्दों से यह संसार रचा 
स्वयं मुस्काये, न खुलें अधर !

नित सिक्त करे, झरता झर-झर 
मूर्तिमान सौंदर्य सा वही, 
उल्लास निष्कपट अंतर में 
ज्यों निर्मल सुख की धार बही !

वह पल भर झलक दिखाता है 
फिर उसकी यादों के उपवन, 
सदियों तक मन को बहला दें 
युग-युग तक उनकी ही धड़कन ! 

वह एक नरम कोमल धागा 
जग मोती जिसमें गुँथा हुआ,
सृष्टि या प्रलय घटते निशदिन 
उसका आकर न अशेष हुआ 

उसको ही गाया मीरा ने 
रसखान, सूर नित आराधें,
भारत भूमि का पुहुप पावन
उसकी सुवास से घट भरते !

मंगलवार, जुलाई 2

चरैवेति चरैवेति



चरैवेति चरैवेति

जीवन को नयनों भर
तकते ही रहना मन !

मार्ग यदि मिल गया हो
तो चलते ही रहना, 
न थकना न ही रुकना
बस बढ़ते ही रहना !

नत माथ हो छाँव में
पल भर ही सुस्ता कर,
गढ़ते ही रहना कल
कदमों में आशा भर !

सपनों सी फुलवारी
मंजिल की झलक दिखे,
पलने ही देना मन
नयनों में चमक जगे !

लौटेंगे किसी दिन
स्वेद बिंदु, मोती बन,
राह में गिरे थे जो
माटी में गये सन !

मंगलवार, सितंबर 22

जीवन ! कितना पावन !

जीवन ! कितना पावन !

सदा अछूता ! कोमल शतदल
सरवर में ज्यों खिला कमल हो,
राजहंस या तिरता कोई
दूर गगन तक उड़ सकता हो !

नन्ही बूंद ओस की जैसे
इन्द्रधनुष या पंख मयूर
कोमलतम या प्रीत हृदय की
बाल रवि का अरुणिम नूर !

निर्मल नभ की शुभ्र नीलिमा
मंद पवन वासन्ती या फिर,
रुनझुन हल्की सी पत्तों में
कलकल मद्धिम धारा का स्वर !

तुलसी दल की गंध सुहानी
श्वेत मालती की ज्यों माला,
मन्दिर में जलता दीपक या
मोती से जो बहे उजाला !



रविवार, अगस्त 31

कोई सागर रहता है

कोई सागर रहता है



नयनों से जो खारा पानी
हर्ष-विषाद में बहता है,
खबर सुनाता, सबके भीतर
कोई सागर रहता है !

सुनना होगा उन लहरों को
अंतर में जो बांच रहीं,
देख आत्मा के चंदा को
देखो कैसे नाच रहीं !

सागर तट पर रहते आये
गहराई में चमचम मोती,
डूब गया मन जिसका उसमें
स्वर्णिम, स्वर्गिक मिलती ज्योति !

शंका और समर्पण जब तक
दो पतवार रहेंगी संग-संग,
डांवाडोल रहेगी नौका
जीवन सागर के जल में !




रविवार, नवंबर 25

दिल के तो पास है


प्रिय ब्लॉगर साथियों,  मैं बनारस व बैंगलोर की यात्रा पर जा रही हूँ, अब दिसंबर के तीसरे सप्ताह में मुलाकात होगी. आने वाले वर्ष के लिए तथा क्रिसमस के लिए अग्रिम शुभकामनायें...


दिल के तो पास है 

अंबर की झील में 
चंदा की नाव है 
तारों की मीन सुंदर 
रंगो का गांव है  !

जाने किस लोक में 
परियों के गांव हैं 
फूल जहाँ बातें करते 
रोशन सी छाँव है !

मोती का नूर है 
ज्योति की हूर है,
दिल के तो पास है 
हाथों से दूर है ! 

मंगलवार, मई 1

अर्थवान हों शब्द हमारे



अर्थवान हों शब्द हमारे

शब्दों का संसार सजाया
मन जिसमें डूबा उतराया,
पहुँचा कहीं न लोटपोट कर
वैसे का वैसा घर आया !

शब्दों की लोरी बन सकती
तंद्रा भीतर जो भर देती,
नहीं जागरण संभव उससे
नींद को वह गहरा कर देती !

शब्दों को तलवार बनाया
इनको ही तो ढाल बनाया,
मोती कुछ लेकर आयेंगे
शब्दों का इक जाल बनाया !

शब्द अकेले क्या कर सकते
यदि  न अर्थ उनमें भर सकते,
अर्थ बिना न कोई कीमत
शब्द नहीं पीड़ा हर सकते !

अर्थ वही जो अनुभव देता
प्रामाणिक जीवन कर देता,
परिवर्तन कर अणु-अणु का
भावमय अंतर कर देता !

सोमवार, जून 13

कुदरत न घूंघट खोलती



कुदरत न घूंघट खोलती 

जो घट रहा सब स्वप्न है
क्यों दिल जलाते हो यहाँ,
जो दिख रहा वह है नहीं
क्यों घर सजाते हो यहाँ !

है ओस की एक बूंद जो
मोती बनी, उड़ जायेगी,
मुड़ देख लो जरा रेत पर
मरीचिका खो जायेगी !

यहाँ बज रही नित बांसुरी
निज सुर लगाये हर कोई
क्यों चाह होती है हमें
वह गीत मेरा गाए ही !  

निज बोध न होता यदि  
कुदरत न घूंघट खोलती  
 पा कर परस इक किरण का   
सोयी कमलिनी बोलती !

अनिता निहालानी
१३ जून २०११