गुलाब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गुलाब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, जून 29

सच क्या है

सच क्या है

सच सूक्ष्म है जो कहने में नहीं आता
सच भाव है जो शब्दों में नहीं समाता
सच एकांत है जहाँ दूसरा प्रवेश नहीं पाता
सच सन्नाटा है जहाँ एक ‘तू’ ही गुंजाता
सच में हुआ जा सकता है पर होने वाला नहीं बचता
सच एक अहसास है जिससे इस जग का कोई मेल नहीं घटता
सच बहुत कोमल है गुलाब से भी
सच होकर भी नहीं होने जैसा है
सच का राही चला जाता है अनंत की ओर
थामे हुए हाथों में श्रद्धा की डोर !

बुधवार, जून 3

नई नकोर कविता


नई नकोर कविता

बरसती नभ से महीन झींसी
छू जाती पल्लवों को आहिस्ता से
ढके जिसे बादलों की ओढ़नी
झरती जा रही फुहार
उस अमल अम्बर से !
छप छप छपाक खेल रहा पाखी जल में
लहराती हवा में लिली और
रजनीगन्धा की शाखें
गुलाब निहारता है जग को भर-भर आँखें
हरी घास पर रंगोली बनाती
 गुलमोहर की पंखुरियां
भीगे-भीगे से इस मौसम में
खो जाता मन 
संग अपने दूर बहा
ले जाती ज्यों पुरवैया...

मंगलवार, नवंबर 18

हरियाली का गांव अनोखा

हरियाली का गांव अनोखा



खिले गुलाब, मालती, बेला, फुदक रहा खगों का मेला
रह-रह गूंजे कलरव मद्धम, कहीं भ्रमर का अविरत सरगम I

हरियाली का गांव अनोखा
अंतरिक्ष में नील झरोखा
गौरेया उड़ आती ऐसे
शीतल कोई हवा का झोंका

आड़े-तिरछे डाल वृक्ष के, झुरमुट कहीं दीर्घ बांस के
हल्की-हल्की तपन पवन में, छुपा सूर्य घन पीछे नभ में 

अनगिन फूल हजारों वर्ण
भांति-भांति के धारे पर्ण
अमलतास का पीतवर्ण लख
रक्तिम स्वाद गुलमोहर का चख

प्रकृति मोहक भरी दोपहरी, सुंदरता हर सूं है बिखरी
रह-रह मौन टूटता प्रहरी, गूंज उठे कोई स्वर लहरी 

नन्हा सा एक नील पुष्प भी
कह जाता सब मौन खड़ा सा
पोखर से उगती कुमुदिनी
या फिर कोई कमल बड़ा सा

गोल, नुकीले, सूक्ष्म, कंटीले, धानी, हरे, बैंगनी, पीले
जाने कितने आकारों में, पत्र वृक्ष के ह्ज्जारों में 

कोमल स्पर्श कभी तीक्ष्ण भी
शीतल मौसम कभी उष्ण भी
प्रकृति का भंडार अपरिमित
अनंत वहाँ सब, कुछ न सीमित

लुटा रहा दोनों हाथों से, दूर कहीं से कोषाध्यक्ष
नहीं खत्म होने को आता, पुरुष छुपा प्रकृति प्रत्यक्ष 

गुरुवार, अप्रैल 24

गुलाब और वह

गुलाब और वह


पूछा गुलाब से
 उसकी ख़ुशी का राज
काँटों में भी मुस्कुराने का
देख अनोखा अंदाज
रंगो-खुशबू की कर रहा था
अनायास ही बरसात
धूप-हवा पानी में
झूमता दिन रात !

बोला, उससे पहले
हँस दिया खिलखिला कर  
हुई दिशाएं लाल
उसकी मोहक अदा पर
चाहा सदा ही गुलाब होना
होकर कभी न पछताया
नहीं कुछ अन्यथा होने का
भाव भी मन में आया
सत्य हूँ सत्य को स्वीकारता
जैसा हूँ उसे ही अपना होना मानता !

चौंका वह बात सुन गुलाब की
कुछ और हो जाने की
जो भीतर जलती थी आग
हो आई बड़ी ही शिद्धत से याद
अचानक उतर गया कोई बोझ भारी मन से
भर गया कण-कण किसी अनजानी पुलक से
एक गहरी मुस्कान भीतर से सतह पर आई
जन्मों से छिपी थी जो तृप्ति छलक आई !




बुधवार, जुलाई 6

साक्षीभाव


साक्षीभाव


संवेदनाओं का ही तो खेल है
चल रहा है छल इन्हीं का...
संवेदनाएं, जो घटतीं हैं मन की भूमि पर
और प्रकटती हैं देह धरातल पर
 जहाँ से पुनः
ग्रहण की जाती हैं मन द्वारा
 और फिर प्रकटें देह.....

मान पा जब उमगाया मन
झेल अवमान कुम्हलाया...
उपजती है संवेदना की मीठी व कड़वी फसल
देह के खेत पर
पड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
और खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की मांग बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !

खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
आते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !