रविवार, अप्रैल 27

काशी दर्शन

काशी दर्शन

काशी नगरी सबसे न्यारी, महादेव को है अति प्यारी
वरुणा-असी के मध्य बसी है, काशी में बसते त्रिपुरारी


गली-गली में मन्दिर अनुपम, पग-पग पर पूजा होती है
घाट-घाट पर तीर्थयात्री, कल्मष नित गंगा धोती है


काशी अति पुरातन नगरी, राजाओं की गाथा कहती
संतों का भी प्रिय स्थल है, भक्ति की धारा यहाँ बहती


कंकर-कंकर में काशी के, शंकर के दर्शन होते हैं
दुर्गा, काली, अन्नपूर्णा, माँ के अनगिन रूप यहाँ हैं


गंगा माँ की कृपा बरसती, ऐसा शुभ संयोग कहाँ है
 दूध-दही, मलाई का घर, भाषा मधुर लोग प्रेमी हैं


छप्पन भोग जहाँ लगते हों, कमी कहाँ अनुभव हो सकती
रात-रात भर चले कीर्तन, गुंजित घाट न काशी सोती


मणिकर्णिका, हरिश्चन्द्र भी, दो घाटों पर जलें चिताएं
जीवित तो पाते हैं आश्रय, मृतक भी सद्गति को पायें

दिन हो या घनघोर रात्रि, अविरत दाहकर्म चलता है,
जीवन जहाँ बना है उत्सव, मृत्यु का मेला लगता है


गंगा की चंचल लहरों में, पूर्ण चन्द्र के बिम्ब उभरते
 दीपदान के बहते दोने, चढ़ लहरों पर जगमग करते


छोटी-बड़ी नौकाएं शत-शत, मंथर गति से बहें नदी में
निशदिन डुबकी लेते जिसमें, यात्री तृप्त हुए अंतर में

सन्ध्या काल में सजे आरती, गीत, भजन, मन्त्रों का गायन
धूप, दीप, चन्दन, अगरु की, सुगंध लिए बहती है पवन


काशी महिमा कौन गा सके, अति गूढ़ है यहाँ की गाथा

अचरज से भर इसे निहारें, या झुक जाये प्रेम से माथा 

गुरुवार, अप्रैल 24

गुलाब और वह

गुलाब और वह


पूछा गुलाब से
 उसकी ख़ुशी का राज
काँटों में भी मुस्कुराने का
देख अनोखा अंदाज
रंगो-खुशबू की कर रहा था
अनायास ही बरसात
धूप-हवा पानी में
झूमता दिन रात !

बोला, उससे पहले
हँस दिया खिलखिला कर  
हुई दिशाएं लाल
उसकी मोहक अदा पर
चाहा सदा ही गुलाब होना
होकर कभी न पछताया
नहीं कुछ अन्यथा होने का
भाव भी मन में आया
सत्य हूँ सत्य को स्वीकारता
जैसा हूँ उसे ही अपना होना मानता !

चौंका वह बात सुन गुलाब की
कुछ और हो जाने की
जो भीतर जलती थी आग
हो आई बड़ी ही शिद्धत से याद
अचानक उतर गया कोई बोझ भारी मन से
भर गया कण-कण किसी अनजानी पुलक से
एक गहरी मुस्कान भीतर से सतह पर आई
जन्मों से छिपी थी जो तृप्ति छलक आई !




शनिवार, अप्रैल 19

मन का दर्पण

बन जाता जब  मानसरोवर  मन का दर्पण
हंस तैरते हैं स्मृति के
कैलाश के उत्तंग शिखरों पर
थम जाती है जीवन चेतना
नहीं भाता जगत का कोलाहल
उहापोह अंतर की
ठहर जाता है आलोक प्रज्ञा का
अनवरत धारा बनकर
गंगा की लहरों का नर्तन
स्वर्ण रश्मियों का फैलाव
तृप्त हुआ मन
नहीं भासता अल्प अभाव
जग यह घाट सरोवर का ज्यों
जीते मरते पल पल प्राणी
रोते हंसते गाते खाते
चेहरे बदल गये हों जैसे
चलती हो कोई दीर्घ कहानी

शनिवार, अप्रैल 12

शुभकामनायें


प्रिय ब्लागर मित्रों, आने वाले त्योहारों के लिए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें ! अगले दस-बारह दिनों के लिए मैं वाराणसी की यात्रा पर जा रही हूँ. गंगा के घाटों के कुछ चित्रों तथा किसी नई रचना के साथ पुनः आपसे भेंट होगी, तब तक के लिए विदा.

शुक्रवार, अप्रैल 11

एक मौन सन्नाटा भीतर

एक मौन सन्नाटा भीतर



सहज कभी था आज जटिल है
कृत्य कुंद जब भाव सुप्त है,
एक मौन सन्नाटा भीतर
हुई शब्दों की धार लुप्त है !

नहीं लालसा, नहीं कामना
जीवन की ज्यों गति थमी है,
इक आधार मिला नौका को
बीच धार पतवार गुमी है !

अब न कहीं जाना राही को
घर से दूर निकल आया है,
ममता के पर कटे मुक्ति का
राग हृदय को अब भाया है !

न कोई संदेश भेजना
 न ही कोई छाप छोड़ना,
लक्ष्य सभी पीछे छूटे हैं
नहीं राम को धनुष तोड़ना !

जीवन, जब जैसा मिल जाये
दोनों बाँह पसारे लेता,
 जहाँ जरूरत जो भी दिखती
अंतर को खाली कर देता !  

बुधवार, अप्रैल 9

मिला वही उजियारा बनकर

मिला वही उजियारा बनकर


अँधियारा छंट गया उसी पल
बन याद इक बसी हृदय में
 एक गीत की कड़ी सुमधुर !

नयन भिगोये कसक घनी थी
राह नजर नहीं आती थी
 मिला वही उजियारा बनकर !

हारा तम हुई विजय उषा की
 टूटे बंधन मुक्त हुआ मन
स्वप्नों को भी लगे नये पर ! 

गुरुवार, अप्रैल 3

तब और अब


तब और अब

देहें तब चमकदार हुआ करती थीं
जिनमें देवों का वास था
थी आदमी और देवता में एक आत्मीयता
और सहयोग की भावना
मनों की शक्तियाँ अकूत थीं
वनस्पतियाँ तक अपने राज खोलती थीं
ध्यान में लीन ऋषि से
गुण धर्म बोलती थीं
दूर नक्षत्रों तक सहज ही गमन करते थे ध्यानी
परमात्मा से तब तक मानव ने रार नहीं थी ठानी
धीरे-धीरे हुई विस्मृति
मद, मान और मोह ने की अवनति
देहें अब मात्र खाद्यान्न भरने का यंत्र हैं
देवों को किया देवालयों में बंद है
दोनों कभी-कभी मिलते हैं
अधिक तो उनके होने पर ही संशय करते हैं
विमुग्ध है मानव निज ज्ञान पर
वंचित है किस सुख से यह भी नहीं जानता
अपने ही स्रोत के अस्तित्त्व को नहीं मानता...