गुरुवार, फ़रवरी 28

शुभ विवाह


हाल ही में एक विवाह में सम्मिलित होने का अवसर मिला, कुछ अलग सा अनुभव हुआ,  क्या था वह अनुभव, आप भी पढ़िये और शामिल हो जाइये इस विवाह में...


शुभ विवाह

साथी बचपन के बंधे
आज परिणय सूत्र में,
मुदित माँ करें स्वागत
द्वार पर अति प्रेम से !
एक अनोखे विवाह का
साक्षी बना संसार,
जहाँ दुल्हन ही निभाती
अन्य सभी व्यवहार !
बागडोर सम्भाले निज जीवन की
करती बड़ी कम्पनी में प्रतिष्ठित नौकरी
आत्मविश्वास भरा कदमों में
भरे स्वप्न सुंदर आँखों में... !
श्रम की आभा से दीप्त होती
माँ-पिता को आश्वस्त करती,
नए युग की नई दुल्हन
भारत का नया भविष्य गढ़ती !
न ही कोई झिझक न संकोच.
न डर कहीं नजर आता,
सधे कदमों में उसके
सुंदर भविष्य ही खबर लाता !
अंग्रेजी, हिंदी, असमिया फर्राटे से बोलती
आँखों ही आँखों में दिल के राज खोलती,
दुल्हन यह अनोखी न जरा भी शर्माती  
निज विवाह का निमंत्रण अकेले देने जाती ! 
भाई संग महाराष्ट्रीयन भाभी
आए असम पहली बार,
घूमें, छू लें असम की बयार
नहीं चाहती पड़े उन पर कोई भी भार !
दीदी भी आई गुवाहाटी से, करुणा
जितना हो सके है लुटाती
पिता आजमगढ़ी आनंद और
माँ असम की भारती !
असम और यूपी का अनोखा संगम
शाम को संगीत, सुबह हुआ जोरन
राष्ट्रीयता का प्रतीक यह शुभ विवाह
देख जिसे निकले, बस वाह ! वाह !
ले हाथों में हौराई, जहां सजे बन्दनवार
दुल्हन खड़ी लाल जोड़े में तैयार
आया दूल्हा बन राजकुमार
खुशियों से भर गया सारा परिवार !

सोमवार, फ़रवरी 25

जीवन दो का है खेल सदा


जीवन दो का है खेल सदा


खिलते काँटों संग पुष्प यहाँ
है धूप जहाँ होगी छाया,
हत्यारा गर तो संत भी है
है ब्रह्म जहाँ होगी माया !

हो तिमिर सघन, घनघोर घटा
रवि किरणें कहीं संवरती हैं,
जो आज चुनौती बन आयी
कल बदली बनी बरसती है !

जीवन दो का है खेल सदा
हर क्षण में दूजा मरण छिपा,
इक श्वास जो भीतर भर जाती
बाहर जाती ले रही विदा !

जो पार हुआ तकता दो को
वह खेल समझता है जग का,
इस ऊंच-नीच के झूले से
वह कूद उतरता खा झटका !  

है शुभ के भीतर छिपा अशुभ
शत्रु बन जाते मित्र घने,
न स्वीकारा जिसने सच यह
विपदा के बादल रहे तने !

सुख की जो बेल उगाई थी
कटु फल दुःख के लगते उस पर,
जीवन में छिपा मरण पल-पल
मन करता गर्व यहाँ किस पर !  

गुरुवार, फ़रवरी 21

यह दिन भला-भला लगता है


यह कविता मैंने अपनी उस सखी के लिए लिखी है, जो उम्र के चौथे दशक के आखिरी पड़ाव में कार चलाना सीख रही है, आज उसके विवाह की छब्बीसवीं सालगिरह है.
यह दिन भला-भला लगता है 

नहीं भरोसा रहा तुम्हारा
चुपके-चुपके क्या कर डालो,
कार चलाना सीख रही हो
घर संग, स्टीयरिंग भी सम्भालो !

शॉपिंग करती, पहनो मैचिंग
दूर-दूर तक जाओ घूमने,
पूरी करो हसरतें दिल की
नहीं अधूरे रहें ये सपने !

तुम भी तो मन के मालिक हो
टीवी के ऐसे दीवाने, 
रहे कैमरा हाथों में या
वाह, वाह ! के सुनो फसाने !

सेहत देख आपकी अब तो
किचन में सारे व्यंजन बनते,
जो तुमको रुचता हो अक्सर
सालन भाजी वही तो बनते !

प्रिय पुत्री है गर्व हमारा
दोनों की आदतें हैं जिसमें,
वही साक्षी हम दोनों की
प्रेम हमारा झलके उसमें !

सेवा कर माँ को खुश रखें
यही प्रयास चला करता है,
जीवन के क्रम चलते रहते
यह दिन भला-भला लगता है !

सोमवार, फ़रवरी 18

विदाई समारोह


यह कविता मैंने इवा जी के लिए लिखी है, जिनका विदाई समारोह इसी हफ्ते हमारे क्लब में होने जा रहा है, वह एक शिक्षिका हैं और मेरा पुत्र  भी उन्हीं के स्कूल से नर्सरी में पढ़ा था. इस कविता के माध्यम से मैं उन सभी शिक्षिकाओं का भी आभार व्यक्त करती हूँ जो अपने स्नेह और श्रम से नन्हें-मुन्नों के जीवन में आगे बढने की प्रेरणा बनती हैं.


आदरणीय व प्रिय श्रीमती इवा हजारिका के लिए शुभकामनाओं सहित


लघु केश, गर्वीला मुखड़ा, जोश हृदय में, रंग गेहुआँ
बच्चों की दुलारी टीचर, बायदो मिलें सदा मुस्काकर

जोरहाट में बीता बचपन, दो भाई व एक बहन थे
अर्थशास्त्र में ली थी डिग्री, किया काम आर.आर.एल में

सन बयासी में बनीं वह दुल्हन, दुलियाजान आयीं संग दादा
अगले बरस ही पांखी आयी, पाही का अभी दूर था आना

गयी स्कूल जिस वर्ष रितिषा, पीछे-पीछे माँ भी आयी
तब से ले आज तक दिल से, वर्ष सत्ताईस ड्यूटी निभाई

जोश भरा त्वरित कदमों में, खिला-खिला सा अंतर उनका
पहली प्राथमिकता स्कूल थी, जैसे दूजा घर था उनका

असम साहित्य सभा दुलियाजान ने, हाल ही में किया सम्मानित
स्वर्ण जयंती समारोह में, बच्चों को किया सम्बोधित

अभिनय का है शौक बहुत, पहले ट्रूप संग थीं जाती  
कलाकार का दिल पाया है, लघु कहानी भी लिखतीं

अश्रु झलक आते पलकों में, बात बिछड़ने की जब आए
लगभग तीन दशक का साथ, कैसे लेडीज क्लब भुलाए

मन में यादों का हुजूम ले, तीन वर्ष दिल्ली में रहेंगी
टाईनी टॉट्स की प्रिंसिपल बायदो, गौहाटी में फिर बसेंगी

बिटिया बड़ी यूएस में रहती, गुजराती दामाद है सुंदर
मास्टर्स की डिग्री ली हैं, पेशे से दोनों इंजीनियर

पाही नोएडा में पढ़ती है, कानून की करे पढ़ाई
उसकी रूचि अदालत में है, सिम्बियोसिस में सीट है पाई

 सदा रहें स्वस्थ व हर्षित, यही दुआ दिल से देते
हो जीवन सुखद, मुदित सबका, यही कामना हम करते



बुधवार, फ़रवरी 13

ओढ़ते तरुवर नूतन गात



ओढ़ते तरुवर नूतन गात


उड़ा मकरंद, बहा आनंद
गाया प्रकृति ने नव छंद

पड़ी ढोलक पर प्यारी थाप
हर कहीं रंगों वाली छाप

मधुर सी बहने लगी बयार
मदिर मौसम ने घोला प्यार

छूट जाते यूँ पीले पात
ओढ़ते तरुवर नूतन गात

विटप हँस दिए गाल कर लाल
खिली सरसों कर पीले हाथ

नासिका पुट महकाए बौर
गमक छाई ज्यों चारों ओर

पुलक भर फूला ढाक, पलाश
थमी तितली की मृदु तलाश

दूर से आती है अनुगूँज
बजी पायल, न फागुन दूर

बसंती बाना ऋतु मदमस्त
चढ़ा मधुमास सभी अलमस्त

देवी वागीशा वन्दित
धूप, मंत्रो से हुईं अर्चित

दिगों तक उड़ा मधुर उच्छ्वास
झूमती मीठी मधुर सुवास

सुहाने दिन चन्दन सी धूप
फिजां पर कैसा रूप अनूप

लगी हल्दी सरसों के अंग
सिंदूरी भाल पलाश के संग

फैली गली-गली यह बात
सजी भू, आया है ऋतुराज
  

सोमवार, फ़रवरी 11

सभी जोड़ों को समर्पित जिनके विवाह की सालगिरह इस हफ्ते है


कल बड़े भैया-भाभी के विवाह की वर्षगाँठ है, यह कविता उनके साथ उन सभी के लिए है जिनके विवाह की सालगिरह इस हफ्ते है. 

विवाह की वर्षगाँठ पर 

स्वर्ग में तय होते हैं रिश्ते
सुना है ऐसा, सब कहते हैं,
जन्नत सा घर उनका जो
इकदूजे के दिल में रहते हैं !

जीवन कितना सूना होता
तुम बिन सच ही हम कहते, 
खुशियों की इक गाथा उनमें
आंसू जो बरबस बहते हैं !

हाथ थाम कर लीं थीं कसमें
उस दिन जिस पावन बेला में,
सदा निभाया सहज ही तुमने
पेपर पर लिख कर देते हैं !

कदम-कदम पर दिया हौसला
प्रेम का झरना बहता रहता,
ऊपर कभी कुहासा भी हो
अंतर में उपवन खिलते हैं !

नहीं रहे अब ‘दो’ हम दोनों
एक ही सुर इक ही भाषा है,
एक दूजे से पहचान बनी 
संग-संग ही जाने जाते हैं !

आज यहाँ आकर पहुंचे हैं
जीवन का रस पीते-पीते
कल भी साथ निभाएंगे हम
पवन, अगन, सूरज कहते हैं !


शनिवार, फ़रवरी 9

उसी घड़ी में कुछ घट जाता


उसी घड़ी में कुछ घट जाता 



वक्त का दरिया बहता जाता
यूँ लगता कुछ कहता जाता !

कल का सूरज कहाँ खो गया
आयेगा जो किधर से आये,
अभी अभी था अभी हुआ मृत
किसी अतल में गुमता जाता !

दूर सितारों से गर देखें
धरा गेंद सी डोल रही है,
एक आवरण में लिपटी सी
भेद किसी के खोल रही है !

सब कुछ पल में थिर हो जैसे
समय की रेखायें मिट जाये,
एक सनातन सृष्टि मिलती
क्षण भर को गतियाँ थम जाएँ !

उसी घड़ी में कुछ घट जाता
वक्त का दरिया रुक मुस्काता !



बुधवार, फ़रवरी 6

कवयित्री ऋता शेखर मधु का काव्य संसार- खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश, ख़ामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, ब्लॉग जगत की जानी-मानी ऋता शेखर ‘मधु’. ऋता जी वनस्पति शास्त्र की शिक्षिका हैं. काव्य की सभी विधाओं (हाइकू, हैगा, तांका, चोका, कविता, आलेख, लघुकथा, छंद) में लिखती हैं. इस संकलन में इनकी दस रचनाएँ हैं. कृष्ण-राधा का प्रेम, प्रकृति चित्रण, नारी का सौंदर्य तथा उसकी शक्ति, पीढ़ियों का अंतर, जीवन दर्शन, दान की महत्ता, कृष्ण की भगवद्गीता इनकी कविताओं के विषय हैं. अपनी सहज, सरल प्रवाहमयी भाषा में इनकी  कविताएं विषय को कई कोणों से बखूबी व्यक्त करती चली जाती हैं.

थी नार नखरीली बहुत, पर, प्रीत से प्रेरित हुई

वसुधा मिली थी भोर से जब, ओढ़ चुनरी लाल सी
पनघट चली राधा लजीली, हंसिनी की चाल सी
...
भर नीर मटकी को उठाया, किन्तु भय था साथ में
चंचल चपल इत उत निहारे, हो न कान्हा घात में
... ...
तब ही अचानक गगरी में, झन्न से कंकड़ी लगी
फूटी गगरिया, नीर फैला, रह गयी राधा ठगी
..
बोलूं न कान्हा से कभी मैं, सोच कर के वह अड़ी
इस दृश्य को लखकर किसन की, जान साँसत में पड़ी

चितचोर ने झटपट मनाया, अब न छेडूंगा तुझे
ओ राधिके, अब मान भी जा, माफ़ भी कर दे मुझे
...
..
ये प्रेम की बातें मधुरतम, सिर्फ वो ही जानते
जो प्रेम से बढ़कर जगत में और कुछ न मानते

ऋतुराज को आना पड़ा है

फिर वाटिका चहकी खुशी से, खिल उठे परिजात है
मदहोशियाँ फैली फिजाँ में, शोखियाँ दिन रात है
...  ...
मीठी बयारों की छुअन से, पल्लवित हर पात है
ना शीत है ना ही तपन है, बौर की शुरुआत है
.. ..
हुडदंग गलियों में मचा है, टोलियों के शोर हैं
क्या खूब होली का समाँ है, मस्तियाँ हर ओर हैं

पकवान थालों में सजे हैं, मालपुए संग हैं
नव वर्ष का स्वागत करें हम, फागुनी रस रंग हैं

क्षितिज पे धरा ही है,
फलक को झुका रही

किसी की बेबसी का तो, मजाक न उड़ाइए
न आप भी विधाता के, निशाना बन जाइए

सोच समझ कही तो, उँगलियाँ उठाइए
आपकी ओर भी है ये, इसे न भूल जाइए
..
..
लदे वृक्ष फलों से जो, सदा ही वे झुक रहे
क्षितिज पे धरा ही है, फलक को झुका रही

चपल, चंचल चोर

ओ नार नवेली
तुम हो अलबेली
..
मुखड़ा को चुराया चंदा से
बन गयी तुम चन्द्रमुखी
आँखों को चुराया हिरणों से
कहलाई तुम मृगनयनी
...
हंसों की पतली ग्रीवा से
अपनी गर्दन को बना लिया
सफेदी चुरानी थी दूधों से
बैठ उसी में नहा लिया

इतनी सारी चोरी करके
बन गयी तुम रूपवती
यौवन की तरुणाई से
कवि की कविता बनी तुम ‘युवती’
... ..
गजों से चुराई अलमस्त चाल
बन गयी तुम गजगामिनी
..
मीठे स्वर को चुरा लिया
बन गई तुम कोकिलकंठी
...
सितारों की चोरी करके
मांग को अपनी सजा लिया
फूलों से खुशबू चोरी कर
बगिया को अपनी महका लिया

ओ ममतामयी
तुम हो जननी
स्नेह से भरी
प्यार की धनी
ममत्व को कहीं से नहीं चुराया
...
वात्सल्य प्रेम को अमर बनाया
ओ रूपसी
ओ गुणवती
ओ दयावती
क्रोध में चोरी करना नहीं
..
ज्वालामुखी बनना नहीं
रौद्र मुखी कहलाना नहीं

नारी, स्वयंसिद्धा बनो

नारी
तू अति सुंदर है
तू अति कोमल है
सृष्टि की जननी है तू
उम्र के हर पड़ाव पर किन्तु
तेरे नयन गीले हैं क्यों ?
...
तेरा यह क्रन्दन है व्यर्थ
जीती है तू सबके तदर्थ
तू खुद को बना ले इतना समर्थ
तेरे जीने का भी हो अर्थ
...
तेरे भी अधिकार हैं सबके समान
नारी तू महान थी, महान है, रहेगी महान

नारी व्यथा की बातें हो गयीं पुरानी
नए युग में बदल रही है कहानी
... ..
बेटियां होती हैं अब घर की शान
उन्हें भी पुत्र समान मिलता है मान
..
सपने विस्तृत गगन में उड़ते हैं
इच्छाएं पसंद की राह चुनते हैं
नारियों के मुख पर नहीं छाई है वीरानी
वक्त बदल गया, अब बदल गयी है कहानी

आज का दर्द

दो पीढ़ियों के बीच दबा
कराह रहा है आज
पुरानी पीढ़ी है भूत का कल
नई पीढ़ी है भविष्य का कल
...
..
न मानो तो बुजुर्ग रूठते
लगाम कसो औलाद भड़कती
क्या करूं कि सब हंसे
हाथ पर हाथ धरे
सोच रहा है आज
... ...
पुराना कल बोले
मेरी किसी को चिंता नहीं
नया कल बोले
मेरी कोई सुनता नहीं
सुन सुन ये शिकवे
कान अपने
सहला रहा है आज
... ..
दोनों कल चक्की के पाट
उनके बीच पिसते स्वयं को
साबुत बचा रहा है आज
.. ..
परम्परा मानता जर्जर कल
बदलाव चाहता प्रस्फुटित कल
दोनों के बीच चुपचाप
सामंजस्य बिठा रहा है आज
... ..
कल और कल की रस्साकशी में
मन्दराचल पर्वत
बन जाओ तुम आज
कई अच्छी बातें ऊपर आएँगी
बीते कल का प्यार बनोगे
आगामी कल का सम्मान

आत्मा की बेड़ी

आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनंत
.. ..
जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की श्रृंखला
.. ..
जन्म लेते ही
स्वतः जाती है जकड़
रक्त संबंध की बेडी
प्यार से निभाएं अगर
रहती है रिश्तों पर पकड़
.. ..
कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलाती भारी प्रदूषण
वे हैं-
कट्टर धर्म की बेड़ी
जातीयता की बेड़ी
अहम की बेड़ी
जलन की बेड़ी
.. ..
जीवन विस्तार को भोग
होगे पंचतत्व में विलीन
आत्मा फिर होगी
बेड़ी रहित
स्वछन्द और मुक्त

महादान

रखना था वचन का मान
दिव्य उपहार कवच कुंडल का
कर्ण ने दे दिया दान
अनोखे दान को मिला स्थान
दान कार्य जग में बना महान
... ...
विद्या दान वही करते
जो होते स्वयं विद्वान
धनदान वही करते
जो होते हैं धनवान
..
रक्त दान सभी कर सकते
क्योंकि सभी होते रक्तवान
.. ..
रक्त कणों का जीवन विस्तार
है सिर्फ तीन महीनों का
क्यों न उसको दान करें हम
पायें आशीष जरुरतमंदों का
.. ..
रक्तदान सा महादान कर
जीते जी पुण्य कमाओ
नेत्र सा अमूल्य अंग दान कर
मरणोपरांत दृष्टि दे जाओ

बारिश की प्रथम बूंद

घटा छाई घनघोर सखी री
नाचे मन का मोर

बूंद बूंद बरसा नीर सखी री
तन मन हुआ विभोर
.. ..
खिले सुमन सुंदर सखी री
जी चाहे लें बटोर
.. ..
आये किसी की याद सखी री
क्या संध्या क्या भोर
.. ..
बूंद बन गयी धारा सखी री
भूले ओर और छोर

आ झूला झूले सखी री
छू ले गगन की पोर

गीता प्राकट्य

बालवृद्ध नर नारी जाने
कथाओं का संग्रह है भारत
उन कथाओं में महाकथा है
नाम है जिसका महाभारत
..
सबस बड़ा युद्ध धरती का
रणभूमि बन गया कुरुक्षेत्र
कौरव-पांडव का भिडंत हुआ
युद्धभूमि कहलाया धर्मक्षेत्र

युद्धक्षेत्र में किया अच्युत(कृष्ण)ने
दुविधा का समाधान
दिया उपदेश सांसारिकता का
वही बना गीता का ज्ञान

गान हुआ श्रीविष्णु के मुख से
श्री-मद-भगवद-गीता बना
पवित्र, श्रेष्ठ और महान

ऋता शेखर ‘मधु’. की कविताएँ पढ़ते और लिखते हुए एक मधुर अहसास से अंतर भरा रहा, आशा है आप सभी सुधी पाठक गण भी इनका आनंद उठाएंगे. इनका इमेल पता है-hrita.sm@gmail.com