शनिवार, सितंबर 22

क्षण क्षण बजती है रुनझुन




क्षण क्षण बजती है रुनझुन

दीन बना लेते हम स्वयं को
ऊंचा उठने की खातिर,
जो जैसा है श्रेष्ठ वही है
हो वैसे ही जग जाहिर !

फूल एक नन्हा सा हँसता
अपनी गरिमा में खिलकर,
होंगे सुंदर फूल और भी
पर न उसे सताते मिलकर !

मानव को यह रोग लगा है
खुद तुलना करता रहता,
दौड लगाता पल-पल जग में
 उर संशय भरता रहता !

जिसको देखो दौड़ रहा है
जाने क्या पाने की धुन,
पल भर का विश्राम न घटता
क्षण क्षण बजती है रुनझुन  !

ठहर गया जो अपने भीतर
खो जाते हैं भेद जहाँ,
थम जाती है जग की चक्की
जीवन लगता खेल वहाँ ! 

गुरुवार, सितंबर 20

शब्दों की सीमा बाहर है



शब्दों की सीमा बाहर है


शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई !

ऊपर ऊपर यूँ लगता है
शब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

भीतर सभी अकेले जग में
खुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !

खुद से ही तो लड़ते रहते
खुद को ही तो घायल करते,
खुद को सम्बन्धों में पाके
खुद से ही तो दूर भागते !

हो निशब्द में जिस पल अंतर
एक ऊष्मा जग जाती है,
दूजे के भी पार हुई जो
उसकी खबर लिए आती है !

दिल से दिल की बात भी यहाँ
उसी मौन में घट जाती है,
शब्दों की सीमा बाहर है
भीतर पीड़ा छंट जाती है !

कोरे शब्दों से न होगा
मौन छुपा हो भीतर जिनमें,
वे ही वार करेंगे दिल पर
सन्नाटा उग आया जिनमें !











मंगलवार, सितंबर 18

सुख शायद अनजाना सा था




सुख शायद अनजाना सा था

सुख सागर से था मुँह मोड़ा
दुःख के इक प्याले की खातिर,
सुख शायद अनजाना सा था
दुःख ही था अपना परिचित चिर !

अपनी एक पोटली दुःख की
सभी लगाये हैं सीने से,
पीड़ा व संताप जहां है
जाने क्या है उस जीने में !

निज हाथों से घायल करते
तन-मन दोनों को ही निशदिन,
अपना अपना जिनको कहते
बैर निकाला करते प्रतिदिन !

कैसी माया है यह जग की
मन का भेद न जाने कोई,
जिसका दूजा नाम ही पीड़ा
बिन त्यागे न राहत कोई !

या तो शरणागत हो जाएं
या फिर खुद को ही पहचानें,
मन के चक्कर में जो आया
हाल जो होगा वह ही जाने !

शनिवार, सितंबर 15

कवयित्री अनुलता का काव्य संसार - खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश, ख़ामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं भोपाल, मध्य प्रदेश की अनुलता, अनु जी रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं, रचनात्मक कार्यों के लिए परिवार जनों व मित्रों के प्रति आभार व्यक्त  करती हैं. इनकी कविताओं में मिलेजुले रंग हैं. इनके ब्लॉग का नाम my dreams 'n' expression है, जिससे हम सभी परिचित हैं तथा जुड़े हैं. इस संकलन में कवयित्री की छह कवितायें हैं.
प्यार की परिभाषा में प्यार के दो विपरीत रंग है, बीती बातें में कुछ दारुण यादें हैं, महामुक्ति में अंतर की प्रार्थना है, उड़ान में युवा वर्ग की बढ़ती हुई लालसाएं हैं, स्त्रीत्व में स्त्री मन की गहरी पुकार है और ये कविता नहीं में सत्य की तलाश है.

आज तक कोई प्यार को परिभाषित कर पाया है, सदियों से कवि कल्पना करते रहे हैं, हर कोई प्यार को अनुभव तो करता है पर निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि वह क्या है... प्यार की परिभाषा में कवयित्री जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों से प्यार को परिभाषित करती है-

तुम्हारे लिए प्यार था
जमीं से फलक तक साथ चलने का वादा
और मैं खेत की मेड़ों पर हाथ थामे चलने को
प्यार कहती रही
...
तुम सारी दुनिया की सैर करवाने को
प्यार जताना कहते
मेरे लिए तो पास के मंदिर तक जाकर
संग संग दिया जलाना प्यार था
..
शहंशाही प्यार था तुम्हारा
बेशक ताजमहल सा तोहफा देता
..
मगर मेरी चाहतें तो थीं छोटी छोटी
...
शायद पागल थी मैं  

यादें चाहे सुखद हों या दुखद लौट-लौट कर आती हैं और मन उनकी उपस्थिति को अनजाने ही दर्ज करता है, बीती बातें में अनु जी कहती हैं कि ‘जो बीत गयी सो बात गयी’ कहना जितना आसान है उसे करना उतना ही मुश्किल-

बीता बोलो
कब बीता?
जो बीता होता
तो रहता क्या मन
यूँ रीता रीता  
..
सांसों की आवाजाही में
सीने के अंदर गहराई में
पैना सा कोई
कांटा चुभता
बीता बोलो कब बीता

जीवन के पथ पर चलते हुए जब इंसान अपने ही मन के हाथों पराजित होता हुआ दीखता है, परमात्मा की ओर नजर उठती है, महामुक्ति की कामना करती हुई आहत आत्मा उसे पुकार उठती है-

हे प्रभु !
मुक्त करो मुझे  
मेरे अहंकार से
..
मुक्ति दो मुझे
जीवन की आपाधापी से
बावला कर दो मुझे
बिसरा दूँ सबको
सूझे न कोई मुझे
सिवा तेरे
..
और दे दो मुझे तुम पंख
की मैं उड़ कर
पहुंच सकूं तुम तक
..
हे प्रभु !
मन चैतन्य कर दो
मुझे अपने होने का
बोध करा दो
मुझे मुक्त कर दो

आज का युवा जल्दी से जल्दी सब कुछ पाना चाहता है, आगे बढ़ने की ललक जितनी आज दिखाई देती है, चीजें जितनी तेजी से आज बदल रही हैं, इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं था, उड़ान में अनु जी की कलम इसी विषय को उठाती है


पंछियों के हुजूम सा
आज का युवा वर्ग
...
साथ साथ हैं सब मगर
एक होड़ भी है
मौज मस्ती के नीचे
दबी छिपी सी कहीं
धक्का मुक्की
पंखो में आग लगी है
..
ये जलते परिंदे नहीं जानते
कि ऊंचाई में वहाँ उन्हें
कोई नीड़ न मिलेगा
..
नारी को सदियों से या तो देवी बनाकर पूजा गया है, या अबला मानकर उसे सताया गया है, स्त्रीत्व में इसी दुःख को व्यक्त करते हुए कवयित्री अपना अधिकार मांगती है-

आज मैं
तुमसे
अपना हक मांग रही हूँ ‘
इतने वर्षों
समर्पित रही
बिना किसी अपेक्षा के
..
अब जाकर
न जाने क्यों
मेरा स्त्री मन विद्रोही हो चला है
बेटी, भीं, बहू, पत्नी, माँ
इन सभी अधिकारों को
तुम्हें सौंप कर
एक स्त्री होने का हक
मांगती हूँ तुमसे
कहो
क्या मंजूर है ये सौदा तुम्हें !

सत्य क्या है दार्शनिक सदा से इस प्रश्न पर चिंतन करते रहे हैं, संसार में असत्य की हार होती नहीं  दिखती, सत्य पराजित होता हुआ लगता है, पर अंत में सत्य ही विजयी होता है, इसी मूल सत्य की स्थापना इस अंतिम कविता, यह कविता नहीं  में की गयी है-



कहते हैं झूठ की पुनरावृत्ति
झूठ को अक्सर
सच बना दिया करतीहै
..
मगर क्या
मान लेने से
वास्तविकता बदल जाती है
चोर चोर कह कर
किसी को गुनहगार साबित कर देते हो
..
अपमान और वेदना के
बियाबान में
भटकता ठोकरें खाता
सच्चे का स्वाभिमान
जल-जल कर
निरंतर प्रकाश उत्सर्जित करता है

..
झूठ की सूली पर
चढ़कर
सत्य अपना शरीर त्याग देता है
मगर सच की आत्मा
अमर होती है
सच कभी मरता नहीं

अनु जी की कवितायें एक ओर विषय वस्तु की  विविधताओं के कारण आकर्षित करती हैं, दूसरी ओर भाषा की सहजता व प्रवाह के कारण मोह लेती हैं, इनमें दिया संदेश हृदय को स्पर्श करता है, मुझे इन कविताओं को पढ़ते व लिखते समय बहुत आनंद हुआ आशा है आप को भी ये भाएँगी.

बुधवार, सितंबर 12

एक अजूबा है यह दुनिया


एक अजूबा है यह दुनिया


फूलों के हार भी मिलते हैं यहाँ
बैठाया जाता है ऊँचे सिंहासनों पर
फ़ैल जाता है भीतर कुछ...
और एक मुस्कान भर जाती है
पोर–पोर में
अभी चेहरे से उसकी चमक गयी भी नहीं होती
अभी तक उफान शांत हुआ भी नहीं होता भीतर का
कि उतरने का क्षण भी आ जाता है आसन से
फिर छा जाते हैं सिकुड़न, उदासी और भारीपन के बादल
मन के आकाश पर
यूँ कभी सागर की लहरों में आये ज्वार सा मन
छूने लगता है आकाश की ऊँचाइयों को जब
टूट जाता है भ्रम
और जमीनी सच्चाई से पड़ता है पाला

पर.. न सम्मान टिकता है न अपमान...
न जाने कितनी बार यह खेल दोहराया गया है
कितनी ही बार बेगानों व अपनों से मन चोट खाया है
जान लेता है जो 
वह पार हो जाता है
जिंदगी नाम के इस खेल से
जहां जीतो या हारो
अंत में हाथ खाली ही रह जाते हैं
व्यर्थ हो जाते हैं ऊर्जा और समय
देख ले जाग के जो इस सत्य को  
जिसका सम्मान  हुआ वह मैं नहीं था
जिसका अपमान हुआ वह भी नही
सम्मानित किया जिसने यह सोच थी उनकी
अपमान करने वाले की भी अपनी थी मर्जी
उनके मन को भला मैं कैसे जानूँ
जब अपना ही मन न पहचानूँ
कि मेरा होना नहीं टिका है
इन छोटे छोटे सुखों-दुखों पर
जो दूसरे मेहरबानी से मुझपर लुटाते हैं
यह तो कोई और ही बात है
जिस तक पहुंच न सकती कोई आँच  है
जहां न दिन होता न होती रात है
वह एक सा भीतर कोई मैं जाग रहा हूँ
फिर क्यों कुछ पाने बाहर भाग रहा हूँ
बाहर तो लुटाना है
अपनी ऊर्जा अपने ज्ञान का झरना बहाना है
सोचते ही मुस्कान खिल जाती है लबों पर
अखंड आन-शान-बान मिल जाती है भीतर
जो नहीं मुरझाती या खिलती
किसी के सम्मान या अपमान से
दोनों खेल हैं खुद तक ले जाने के लिए
खुद से मिलकर खुद को लुटाने के लिए..

 

रविवार, सितंबर 9

कवयित्री शिखा कौशिक का काव्य संसार- खामोश, ख़ामोशी और हम में


खामोश ख़ामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, उत्तर प्रदेश की शिखा कौशिक जिनके ब्लॉग पर सुंदर कवितायें तथा स्वरचित गीत सुनने को मिलते हैं. शिखा जी शोधार्थी हैं और हिंदी के महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में स्त्री विमर्श पर शोध कर रही हैं. इनके माता-पिता वकील हैं.
इस संकलन में कवयित्री की छह कवितायें हैं, परम के प्रति आस्था को व्यक्त करती मैं कतरा हूँ, तथा आत्मशक्ति पर विश्वास, प्रकृति के सुंदर रूपों का वर्णन करती राजतिलक, काल की पहचान करने का प्रयास है समय में, जिंदगी क्या है तथा सड़क में उसी को गवाह बनाकर जीवन को समझने की कोशिश, इनकी कविताओं को नए-नए रंगों से भर देती है.

कवि का अर्थ ही है जो जमाने भर का दर्द अपने भीतर महसूस करे और उसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त करे, मैं कतरा हूँ कविता में इसी प्रार्थना को भाव भरे शब्दों में प्रस्तुत किया है

किसी की आंख का आँसू
मेरी आँखों में आ छलके
किसी की साँस थमते देख
मेरा दिल चले थम के
..
प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे
इस दिल को तुम भर दो
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत
का दरिया तुम कर दो

किसी का खून बहता देख
मेरा खून जम जाये
किसी की चीख पर मेरे
कदम उस और बढ़ जाये
..
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत
का दरिया तुम कर दो

आशा और विश्वास ही जीवन को हादसों से गुजरने का बल देते हैं, आत्मशक्ति पर विश्वास हो तो बाधाएं कुछ नहीं कर सकतीं-

राह कितनी भी कुटिल हो 
हमें चलना है
हार भी हो जाये तो भी
मुस्कुराना है
...
हादसों के बीच से
इस तरह निकल जाना है
..
रात कितनी भी बड़ी हो
सवेरा तो होना है

सुबह से लेकर रात तक प्रकृति न जाने कितने रूप और आकार लेती है...निशा-सुन्दरी का राजतिलक पाठक को एक अनोखे भावलोक में ले जाता है.

उषाकाल
उदित होता दिनकर
नीलाम्बर लालिमा लिए
पक्षियों का कलरव
मंदिरों की घंटियों
की मधुर ध्वनि
..
मध्याहन का समय
जीवन में गति
..
सायन्तिका का आगमन
लौटते घर को
कदमों की आवाज
शांत जल
टिमटिमाते तारों का समूह
सुगन्धित समीर
निशा-सुन्दरी का
राजतिलक

काल को हम जानते हुए भी नहीं जानते...समय में कवयित्री द्वारा पल-पल बहती समय की धारा के साथ बहने का प्रयास किया गया है...

कुछ छूटता-सा
दूर जाता हुआ
बार-बार याद आकर
रुलाता सा
क्या है
मैं नहीं जानती
कुछ सरकता-सा
कुछ बिखरता-सा
कुछ फिसलता-सा
कुछ पलटता-सा
..
धीरे धीरे आगे बढता हुआ
हमारे हाथों से निकलता हुआ
कभी अच्छा कभी बुरा
हाँ! ये समय ही है!

जीवन की राह हो या शहर की सड़क, दोनों पर चलना होता है मानव को और साक्षी होता है पथ..

मैं सड़क हूँ, मैं गवाह हूँ
आपके गम और खुशी की
है नहीं कोई सगा पर
मैं सगी हूँ हर किसी की
..
मुझपे बिखरे रंग ये होली के देखो
मुझपे बिखरा खून ये दंगों का देखो
..
मैं गवाह आंसू की हूँ और कहकहों की
..
मंदिरों तक जा रहे मुझपे ही चलकर
मैं गरीबों को सुलाती थपकी देकर
..
मैं सड़क हूँ, मैं गवाह हूँ
आपके गम और खुशी की

कवयित्री की अंतिम कविता है जिंदगी क्या है, जो शब्दों की सुंदर पुनरुक्ति तथा प्रवाहमयी भाषा के कारण हृदय को छूती है-

जिंदगी क्या है?
खुशी के दो-चार पल
खुशी क्या है
हृदय में उठती तरंगों की हलचल
हृदय क्या है
..
संसार क्या है
दुखों का भंडार
दुःख क्या है
सुख की अनुपस्थिति
...
मनचाहा क्या है
खुशहाल जिंदगी
जिंदगी क्या है
खुशी के दो चार पल

शिखा कौशिक जी की कवितायें सहज और सरल भाषा तथा जीवन के विविध रंगों को अपनी विषय वस्तु बनाने के कारण अपनी अलग पहचान रखती हैं. इनके लिए मैं कवयित्री को बधाई देती हूँ, तथा आशा करती हूँ कि सुधी पाठक जन भी इन्हें पढकर आह्लादित होंगे, व अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा इसकी सूचना भी देंगे.