पोर-पोर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पोर-पोर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, जुलाई 12

उससे मिलन न क्योंकर होता

उससे मिलन न क्योंकर होता


पोर-पोर में श्वास-श्वास में
नस-नस में हर रक्त के कण में,
गहराई तक भीतर मन में
छाया जो पूरे जीवन में !

उससे ही हम अनजाने हैं
दूरी उससे बढ़ती जाती,
जो खुद से भी निकट है प्रियतम
उससे आँख नहीं मिल पाती !

जिसके होने से ही हम हैं
उससे मिलन न क्योंकर होता,
जिससे कण-कण व्याप रहा है
उससे न मन प्रीत जोड़ता !

मन अस्थिर, अस्थिर ही रहता
घबराया सा, रहे कांपता !
बन आकांक्षी यश मान का
या सुविधा के पीछे जाता !

बचा बचा कर रखता तन को
बचा बचा कर रखता धन को,
दोनों ही कुछ दिन के साथी
समझ न आता भोले मन को !