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शुक्रवार, जुलाई 19

गुरु ने कहा


गुरु ने कहा


तुम्हारी मंजिल 

यदि श्मशान घाट ही है

चाहे वह आज हो या 

कुछ वर्षों बाद 

तो क्या हासिल किया 

एक रहस्य 

जो अनाम है 

 स्वयं को प्रकटाये

तुम्हारे माध्यम से

तभी जीवन को 

वास्तव में जिया !

वह जो सदा ही निकट है 

 प्रकृति के कण-कण में छुपा 

वह जो कृष्ण की मुस्कान की तरह 

अधरों पर टिकना 

और बुद्ध की करुणा की तरह 

आँखों से बहना चाहता है  

प्रियतम बनकर 

गीतों में गूँजना चाहता है 

संगीत बनकर आलम में 

बिखरना चाहता है 

वही कला, शिल्प, नृत्य है 

  पूजा, प्रज्ञा, मेधा है वही 

उर की गहराई में

 बसने वाली समाधि भी वही

उसे दिल में थोड़ी सी जगह दो

घेर ले वह अपने आप ही शेष

इतनी तो वजह दो ! 


रविवार, जून 23

सत्य



सत्य 


‘मैं’ तुममें विलीन हो जाये 

यही चाह होती है प्रेम की 

यही चाह लघु मन की है 

जो विशाल मन में डुबाना चाहता है ख़ुद को 

अनंत में खोकर अपने बूँद जैसे अस्तित्त्व को 

सागर बनाना चाहता है 

जैसे अग्नि का एक स्फुलिंग 

पुन:  गिर जाये अग्निकुंड में

सूर्य की एक किरण उसमें लौट जाये 

तो बन जाएगी महासूर्य 

और फिर लौटे 

उसके गुणधर्म अलग होंगे 

वह जान लेगी अपना सत्य 

वह वही है 

तत् त्वम्असि श्वेतकेतु ! 



बुद्ध 


नहीं बनाया कोई मंदिर 

 राज महल न ही कोई गढ़ा,

किंतु बुद्ध सम्राट हृदय के 

 यह जग सम्मुख नत हुआ खड़ा ! 


 विदाई 


विदाई की बेला है 

दुख तो स्वाभाविक है 

नम होंगे नयन 

जार-जार अश्रु भी बहेंगे 

पर याद रखना होगा 

हर अंत एक नयी शुरुआत है 

हर रात का होता प्रभात है !


शनिवार, जून 17

दुलियाजान में गुरूजी

दुलियाजान में गुरूजी

सूरज, गगन, धरा, वट, पंछी

पुलकित होकर हुए तृप्त हैं,

इक ही सुर में सब गाते हैं 

उसी की चाहत जो मुक्त है !


मुक्त सदा जो हर बंधन से

दुःख, पीड़ा,  क्षुद्र  अंतर  से,

सुख, शांति, आनंद स्वरूप वह 

चिन्मय हो आया कण-कण से !


वह जो करुणा रूप बुद्ध का

झलकाए नानक की मस्ती, 

मस्त हुआ है जो कबीर सा

गूंज रहा बन कृष्ण बांसुरी !


मीरा सी है भक्ति ह्रदय में 

महावीर सा ज्ञान अनूठा,

शंकर का अद्वैत पी गया

रामकृष्ण सी सहज सरलता !


फौलादी विश्वास का अधिप

फूल सा मृदुल  बालक जैसा,

प्रखर बुद्धि अद्भुत योगी है

स्नेह लुटाता पालक जैसा !


चकित हुए सब दीवाने भी

सबके दिल में घर कर लेता,

दुलियाजान बिछाये पलकें

राह उसी की देखा करता !



अनिता निहालानी
२१ फरवरी २०१०
दुलियाजान, असम

सोमवार, जून 14

पूर्ण गगन प्रतिबिम्बित जिसमें

पूर्ण गगन प्रतिबिम्बित जिसमें 


ठहर गया प्रमुदित मन-अंतर

नयन मुंदे, अधर मुस्काते,

परम बुद्ध  की शुभ मूरत पर 

लोग युगों से वारी जाते !


मोहक मुद्रा अभय बरसता 

थिर हो जैसे सर्वर दर्पण, 

पूर्ण गगन प्रतिबिम्बित जिसमें 

चमकें चन्द्र और तारा गण !


मीलों भटक-भटक  राही को 

जैसे कोई ठाँव मिल गया, 

जंगल-जंगल घूम रहा था 

आखिर सुंदर गाँव मिल गया !


क्या पाया जब पूछा जग ने 

बुद्ध हँसे,  कुछ नहीं कमाया, 

बोझ लिए फिरता था मन जो  

एक-एक कर उन्हें बहाया !


है हल्का उर उड़े गगन में 

कभी कोई न तृषा सताये, 

चाह मिटी तो जग पीछे था 

करुणा सहज परम बरसाए !



 

गुरुवार, दिसंबर 10

हरेक शै के दो पहलू हैं जनाब

 हरेक शै के दो पहलू हैं जनाब

'जो' है खुशी का सबब किसी के लिए 

कुछ उससे ही दुखों के वस्त्र सिले जाते हैं

जमाने में फूल भी तो खिलते हैं

महज फितरत से कांटे ही चुने जाते हैं

दी है खुदा ने पूरी आजादी 

कोई जन्नत, कुछ जहन्नुम से दिल लगाते हैं

शब्द सारे उन्हीं स्वर-वर्ण से बने 

कोई वंदन तो कुछ क्रंदन में पिरोते हैं

मिले हर माल कुदरती बाजार में 

कोई सुकून तो कुछ झंझट लिए जाते हैं

नजर अपनी ही धुंधली है मगर

इल्जाम जमाने को दिए जाते हैं

नजर बदली तो नजारे बदलते 

रंगीन चश्मे लगा श्वेत शै चुने जाते हैं

मुक्कमल आकाश छिपाए भीतर

लोग  पिंजरों में जिंदगी बिताए जाते हैं 

दरिया बहते समंदर ठाठें मारे 

जाने क्यों प्यास दिल से लगाए जाते हैं 

कौन कहता है, रब नहीं, बुद्ध ने कहा

स्वयं बंद आँखों में बसाए जाते हैं !


गुरुवार, मई 7

अप्प दीपो भव

अप्प दीपो भव 


तुम वही हो !
बुद्ध के अमोघ शब्द हैं ये 
हमें मानने का जी चाहता है 
वही दीप, वही प्रकाश 
जो शाश्वत है, आनंद से भर देता है
मुक्त और अभय कर... ले जाता है,
देह की सीमाओं से परे !
नाता मन से भी टूट जाता है 
तुम साक्षी बन जाते हो दोनों के 
बुद्ध कहते ही अनंत का स्मरण हो आता है 
निर्भयता साक्षी ही अनुभव कर सकता है 
मन नहीं 
देह अब साधन है साध्य नहीं 
मन अब उपकरण है प्राप्य नहीं 
विचार अब करने की नहीं दर्शन की वस्तु है 
स्वामी सेवक का काम नहीं करता 
उस पर नजर भर रखता है 
ताकि वह पथ से भटके नहीं 
चिन्तन करना नहीं है, बुद्धि कैसा चिंतन करती है 
यह जानना भर है 
ध्यान करना नहीं स्वयं हो जाना है 
तुम कुछ भी रहो 
जाने जाओ किसी भी नाम से 
बुद्ध कहते हैं 
तुम वही हो ! 

सोमवार, अप्रैल 30

बुद्ध का निर्वाण


बुद्ध का निर्वाण


एक बार देख मृत देह
हो गया था बुद्ध को वैराग्य अपार
हजार मौतें नित्य देख हम
बढ़ा रहे सुविधाओं के अंबार
जरा-रोग ग्रस्त देहों ने उन्हें
कर दिया दूर भोग-विलास से
हम विंडो शॉपिंग के भी बहाने हैं ढूँढ़ते
बढ़ती जा रही है दरार आज
 धनी और निर्धनों के मध्य
जितनी बढ़ती है संख्या आलीशान महलों की
 बढ़ जातीं उसी अनुपात से
शहर में झुग्गी-झोपड़ियाँ भी !

राजा जब बन जाता था परिव्राजक
तो खुल जाते भंडार भी वणिकों के
आम जनता के लिए
पर जहाँ शासक बैठा हो बना अट्टालिकाएं
वहाँ बटोरने लगते हैं व्यापारीगण अपनी तिजोरियां
कुछ भी नहीं कह पाता राजा
सिवाय आँख मूंद लेने के...

ली थी वन की राह बुद्ध ने
मात्र अपने निर्वाण के लिए ?
नहीं, मंशा थी कुछ और
नहीं है धन ही सब कुछ दुनिया में
दान का महत्व सिखाने हित
वे बन बैठे थे स्वयं दानी
सेवा का उपदेश ही नहीं दिया
वर्षों तक विहार किया
हम जो देखना ही भुला बैठे हैं गावों की ओर
खत्म कर रहे हैं वनों को
होकर दूर बुद्ध की शिक्षाओं से
एक बार फिर से वैराग्य की अलख तो जगानी ही होगी
भोगी बने मनों को योग की सच्ची राह दिखानी होगी
तभी मनेगी सच्ची बुद्ध पूर्णिमा !

सोमवार, जनवरी 29

एक अजाना मौन कहीं है



एक अजाना मौन कहीं है


कभी उत्तंग नभ को छूतीं
कभी क्लांत हो तट पे सोतीं,
सागर को परिभाषित करतीं 
उन लहरों का स्रोत कहीं है !

कभी बुद्ध करुणानिधि बनता
रावण सा भी व्यर्थ गर्जता,
दुनिया जिसके बल पर चलती
उस मानव का अर्थ कहीं है !

अंतर को मधु से भर जाते
जोश बाजुओं में भर जाते,
विमल संग से हृदय पिघलता
उन गीतों का मर्म कहीं है !

भू की गहराई में सोया
नभ की ऊँचाई में खोया,
उर से जिसके शब्द फूटते
एक अजाना मौन कहीं है !

रविवार, जुलाई 19

लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा- (अंतिम भाग)

लद्दाखधरा पर चाँद-धरा


५ जुलाई      
आज लेह में हमारा अंतिम दिन है. कल रात भी स्वप्न में कितने ही दृश्य दिखे, लद्दाख में देखे स्थानों के भी और अन्य भी. स्वप्न अलग थे पर जगते हुए इन दृश्यों को देखना एक अलग अनुभव है. चेतना जैसे ज्यादा मुखर हो गयी है. प्रकाश भी बहुत तीव्र है यहाँ. तेज धूप निकलती है जो ग्लेशियर्स को पिघला रही है. नहरों-नालों में जल का तेज बहाव शुरू हो गया है, जो खेतों को सींचने में काम आयेगा. यहाँ मुख्यतः वर्ष के तीन-चार महीने ही खेती की जाती है. कल शाम हम लेह पैलेस तथा शांति स्तूप देखने गये. लेह महल बहुत पुराना है, यह नौ मंजिला इमारत सत्रहवीं शतब्दी में राजा सेंग्गे नामग्याल द्वारा बनवायी गयी थी, अब इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया गया है. इसे बनाने में मुख्यतः लकड़ी का प्रयोग हुआ है. 
नौ मंजिला लेह महल 
शांति स्तूप जापान के सहयोग से एक पहाड़ी पर बना एक अनोखा स्मारक है जिसमें नीचे बुद्ध मन्दिर है तथा ऊपर भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति, तथा निर्वाण के दृश्यों को मूर्तिकला के माध्यम से दर्शाया गया है. यह १९८५ में पूरा हुआ और दलाई लामा के हाथों इसका उद्घाटन हुआ.
शांति स्तूप 
आज की यात्रा का मुख्य आकर्षण था मेगनेटिक हिल, लिकिरअलची के गोम्पा तथा पत्थर साहेब गुरुद्वारे में दोपहर का लंगर. सुबह नौ बजे नाश्ता करके हम दोरजी की इनोवा में निकले तथा सिंधु व झंस्कर नदी के संगम स्थल पर पहुंचे. दोनों नदियों के जल का रंग भिन्न था यह स्पष्ट दीख रहा था. गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पर्वतों की ढलानों से मिट्टी के साथ पानी तेज गति से बह रहा है, सो मटमैला होने के बावजूद दो रंगों का था. वहाँ रिवर-राफ्टिंग के लिए भी साजो-सामान रखा था. 
दो नदियों का संगम 
मैग्नेटिक हिल पहुंचने पर हमारी कार अपने आप ऊंचाई पर चढ़ने लगी, ऐसा प्रतीत हुआ. लिकिर गोम्पा में भावी बुद्ध कि विशाल स्वर्ण प्रतिमा है जिसे जापान की सहायता से बनाया गया है. मन्दिर में अद्भुत चित्रकला के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन के मुख्य पड़ावों जन्म, ज्ञान प्राप्ति, दानवों पर विजय तथा निर्वाण को दर्शाया गया है. उन दस अर्हतों के भी चित्र वहाँ थे जिन्होंने बुद्द्ध की शिक्षाओं को संकलित किया था. 
बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा 
लेह के पश्चिम में ७० किमी दूर स्थित अल्ची एक हजार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री है, जहाँ मुख्य द्वार तक पहुंचने का मार्ग घुमावदार, शांत व शीतल है, संकरे मार्ग में दोनों और दुकाने लगी थीं. कई विदेशी यात्री वहाँ दिखे जो इतिहास में काफी रूचि दिखा रहे थे. 
अल्ची गोम्पा का मार्ग 
पत्थर साहब गुरुद्वारा भी बहुत भव्य है जो सेना द्वारा संचालित किया जाता है. इसका महत्व इस बात से बढ़ जाता है कि गुरु नानक देव अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान यहाँ ठहरे थे. कहा जाता है कि एक दानव के उनके ध्यान को भंग करने के लिए एक चट्टान उनकी तरफ फेंकी पर उन्हें कोई नुकसान पहुंचाए बिना पत्थर की वह चट्टान वहाँ रुक गयी, जिसे आज तक पूजा जाता है. वहाँ हमने कड़ाह प्रसाद तथा भोजन का प्रसाद ग्रहण किया. लेह शहर में स्थित एक स्थल दातुन साहब के बारे में भी एक पुस्तक में पढ़ा था, जहाँ गुरु नानक ने सोलहवीं शताब्दी में एक वृक्ष लगाया था.
अलची गोम्पा 
इस समय संध्या होने में अभी कुछ समय है. तेज हवा के कारण पेड़ों की टहनियाँ आपस में व टिन के शेड से टकरा रही हैं, जिसके कारण आवाज पैदा हो रही है. धूप सात बजे तक कम होगी तब हम सांध्य भ्रमण के लिए जायेंगे था बाद में आज उतारे फोटो देखेंगे. सामान की पैकिंग लगभग हो चुकी है. कल सुबह आठ बजे की उड़ान से हमें दिल्ली जाना है और परसों इसी वक्त असम में अपने घर में होंगे .                                                                                                                                                               
हवाई जहाज से लिया चित्र

                                                                                                                           
जन्सकर नदी
               
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

शुक्रवार, मार्च 6

विपासना का अनुभव -३

विपासना का अनुभव 

पहले साढ़े तीन दिन श्वास पर ध्यान देने की विधि समझायी गयी, जिसे आना-पान कहते हैं. अगले साढ़े छह दिन विपश्यना का अभ्यास कराया गया जिसमें शरीर पर होने वाले स्पंदनों को समता भाव से देखना होता है. हर स्पंदन मन के भीतर गहराई में उठते किसी न किसी भाव अथवा विचार से जुड़ा होता है. हर भाव या विचार राग, द्वेष अथवा मोह जगाता है. राग जगने पर सुखद संवेदना होती है, द्वेष जगने पर दुखद संवेदना होती है तथा मोह जगने पर केवल संवेदना मात्र होती है. यदि साक्षी भाव से हमें संवेदनाओं को देखना आ जाये तो धीरे-धीरे मन के अंतरतम में छिपे संस्कारों से हम मुक्त हो सकते हैं. जितने समय हम समता भाव में रहते हैं कोई नया संस्कार नहीं बनाते तथा पुराने संस्कार क्षण-प्रति क्षण उदय होते हैं व अस्त होते हैं, भगवान बुद्ध की यह खोज थी कि देह अथवा चित्त पर प्रतिक्षण कुछ न कुछ उदय होता है और अस्त होता है. हम केवल ऊपर-ऊपर से देखते हैं तो दुःख का कारण बाहरी घटना, व्यक्ति या परिस्थिति को मानते हैं जिसके कारण भीतर द्वेष उठा, वास्तव में दुःख का कारण वह सुखद या दुखद संवेदना है, जिसे देखकर हम उसी क्षण दुःख से पार जा सकते हैं. यही विपश्यना का मुख्य सिद्धांत है.
प्रतिदिन सुबह छह बजे गोयनका जी की धीर-गम्भीर आवाज में ‘मंगल पाठ’ होता था बुद्ध वाणी का. जो पाली में था तथा जिसका अर्थ पूरी तरह समझ में नहीं आता था. शेष समय में भी गोयनका जी बुद्ध के धम्म पदों का उपयोग करते थे तथा बीच-बीच में स्वरचित दोहों के द्वारा उनका अर्थ स्पष्ट करते जाते थे. ठीक साढ़े छह बजे घंटा बजता था जिसका अर्थ था नाश्ते का समय हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि नहाकर नाश्ता करें पर सभी पहले भोजनालय में पहुंच जाते जहाँ अक्सर सूजी का ढोकला, मीठी चटनी, काले चने की घुघनी, कोई एक फल, चाय, दूध मिला करता था. कभी-कभी पोहा व दलिया भी मिला जिसमें दूध नहीं था बल्कि हल्की मिठास थी. नाश्ते के बाद कुछ देर टहलने के बाद स्नान की तैयारी.

आठ बजे से कुछ क्षण पूर्व ही पुनः सभी हॉल में पहुँचे, गोयनका जी की आवाज में श्वास पर ध्यान देने की विधि सिखाई गयी. शुद्ध श्वास पर ध्यान देना था जिससे मन अपने आप केन्द्रित होता जाता था. नौ बजे के बाद पांच मिनट का विश्राम लेने को कहा गया. विश्राम का अर्थ था हॉल के बाहर बने पक्के फुटपाथों पर टहलना जिससे पैरों की जकड़न खुल जाती थी. कुछ लोग कमरे की तरफ भागते ताकि पांच मिनट लेट कर कमर सीधी कर लें. पुनः साधना का क्रम चला तो समय लम्बा खिंचता चला गया. गोयनका जी अपनी स्पष्ट व प्रखर वाणी में निर्देश दे रहे थे. पुरुषार्थ और पराक्रम करने की प्रेरणा भी बारी-बारी से हिंदी व अंग्रेजी भाषों में दे रहे थे. साधकों में विभिन्न राज्यों के तथा देशों के लोग थे, ज्यादातर स्थानीय थे.  ग्यारह बजे घंटे की आवाज से यह सत्र खत्म हुआ. यह दोपहर के भोजन का समय था. सात्विक, शाकाहारी भोजन परोसा जाता था, जिसमें पीली दाल, एक आलू की सब्जी जिसमें कभी मटर, कभी सफेद चने, कभी कटहल या टमाटर आदि होते थे. एक सूखी सब्जी, चावल तथा रोटी होती थी. छाछ व मीठी चटनी भी अक्सर मिलती थी. 

बुधवार, नवंबर 16

यह अमृत का इक सागर है


यह अमृत का इक सागर है

बुद्धि पर ही जीने वाले
दिल की दुनिया को क्या जानें,
वह कुएं का पानी खारा
यह अमृत का इक सागर है !

तर्कों का जाल बिछाया है
क्या सिद्ध किया चाहोगे तुम,
जो शुद्ध हुआ मन, सुमन हुआ
वह भूलभुलैया भ्रामक है !

शिव तत्व ही सत्य जगत का है
मानव के दिल में प्रकट हुआ,
बुद्धि भी नतमस्तक होती
छलके जब बुद्ध की गागर है !

दो आँसू बन के छलक गया  
भीतर जब नहीं समाय रहा,
लेकिन जग यह क्या समझेगा
सुख के पीछे जो पागल है !

टुकुर-टुकुर तकते दो नैना
भीतर प्रज्ज्वलित एक प्रकाश,
अक्सर दुनिया रोया करती
जब तक नभ केवल बाहर है !