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गुरुवार, अक्टूबर 4

कवि अनुराग अनंत का काव्य संसार


खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि अनुराग अनंत इस कड़ी के अगले हस्ताक्षर हैं. इलाहबाद के रहने वाले अनंत ने लखनऊ से पत्रकारिता की पढ़ाई की है,  समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं, रंगमंच से भी इनका जुड़ाव है. इनके दो ब्लॉग हैं- अनंत का दर्द-http//:anantsabha.blogspot.in तथा अनंत की गजल- http//:anuraganant.blogspot.in
इस संग्रह में कवि की छह रचनायें हैं.  जर्जर किले के पीछे, बापू तुम्हारी मुस्कुराती हुई तस्वीर, उम्र के अठारह वसंत पार करके, खुद-ब-खुद तीन लम्बी कवितायें हैं, जिनमें समाज और राज्य की विसंगतियों की ओर कई प्रश्न उठाये हैं.  तीन अन्य कवितायें हैं- काश, बापू तुम्हारा नाम गाँधी न होता, मैंने माँ को देखा है, मैंने कलम उठायी है. इनकी कविताओं की विषय वस्तु समाज और देश है.
जर्जर किले के पीछे पढते हुए पाठक उन सवालों से खुद को घिरा पाता है, जो देश और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से पैदा होते हैं-

शहर के एक छोर में,
एक जर्जर किले के पीछे,
बूढ़े बरगद के नीचे
डूबते सूरज से लाल होती नदी के किनारे,
एक उठान पर,
गिरा पड़ा रहा हूँ मैं
कई कई शाम
सवाल चारों तरफ बच्चों सा खेलते रहे हैं,
...

चेहरों की झुर्रियों,
पेशानी की सिलवटों,
जुबान की अकुलाहटों,
और जिंदगी की झंझटों में,
..
लिपटे हुए
सवाल ?
जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ
किस तरफ हूँ मैं?
तनी संगीनो की तरफ
या उन हाथों की तरफ
जिन्होंने संगीनों के जवाब में,
पत्थर उठाये हैं
..
मेरा तिरंगा कौन सा है ?
संसद, लाल किले,
जिंदल. अम्बानी, टाटा-बाटा, बिरला
के महलों पर लहराता
..
या-भूखी नंगी काया के हाथों में
उम्मीद के तीन रंगों वाला
..
मेरा देश कौन सा है
कंक्रीट के ऊँचे-ऊँचे जंगलों में,
भावनाओं को ठगता
..
रोटियां छीन कर बोटियाँ चबाता
इण्डिया या जल, जमीन, जंगल में मुस्काता,
जिंदगी में लिपटा
..
खून, पसीना, आँसू बहाता
हिन्दुस्तान
मेरा देश कौन सा है ?
..
सवाल जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ 
एक कदम चलना भी
मुश्किल है साथी
..
इन जवाबों में मेरा एक भी जवाब नहीं है
सारे के सारे अवैध हैं
नाजायज हैं

हार कर अब नहीं जाता
उस जर्जर किले के पीछे
..
मैं सवालों से भाग रहा हूँ
शायद इसलिए भीतर से मर रहा हूँ
जीने के लिए सवाल जरूरी हैं

काश बापू, तुम्हारा नाम गाँधी न होता व बापू तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर ये दोनों कवितायें कवि मन की करुणा को व्यक्त करती है, बापू के प्रति हृदय में प्रेम की भावना समेटे कवि आज के समाज की विडम्बनापूर्ण स्थिति से गुजरता है जहाँ नोट पर तो गाँधी की मुस्कुराती तस्वीर दिखाई देती है, पर उनके आदर्शों को हम भूल गए हैं. बापू की तस्वीर के सामने ही सारे अपराध किये जाते हैं.

काश बापू, तुम्हारा नाम गाँधी न होता

गाँधी जी से प्रेम है मुझे
...
मगर ये भी सच है कि गाँधी जी का नाम सुनते ही
मेरे मन में भर जाता है, एक लिजलिजा सा कुछ
..
गाँधी जी के नाम में गांधारी छिपी है
जो अंधे धृतराष्ट्र की पट्टी खोलने के बजाय
स्वयं अंधी पट्टी बांध लेती है
..
मुझे लगता है कि गाँधी गाँधी न होते
गर उनका नाम गाँधी न होता
इस गाँधी नाम ने उन्हें
गांधारी बना डाला
और राष्ट्र को धृतराष्ट्र.

बापू तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर

बापू तुमने कभी हिंसा नहीं की
सब कहते हैं
पढते हैं
जानते हैं
सीखते हैं
सब क सब झूठे हैं
मुझे माफ़ करना बापू
मैं यह सच कहूँगा
कि तुमने बहुतों को मारा है
मरवाया है

विदर्भ में हजारों किसानों ने फांसी लगा ली
क्योंकि तुम्हारी हरे पत्तों पर छपी
मुस्कुराती तस्वीर नहीं थी उनके पास

...
तुम निष्ठुर – निर्दयी थे कि नहीं
मुझे नहीं मालूम
पर तुम्हारी तस्वीर निष्ठुर और निर्दयी है
...
तुम्हें पाने ले लिए गरीब अपने तन से लेकर मन तक बेच देता है
पर तुम उसके हक के बराबर भी उसे नहीं मिलते
...
तुम्हारी हँसती हुई तस्वीर से चिढ है मुझे
थाने से लेकर संसद तक जहां भी
मेहनतकशों पर जुल्म ढाये जाते हैं
तुम हंसते हुए पाए जाते हो

जब गरीब तुम्हारी कमी से
अपना मन कचोट रहा होता है
तुम हँसते मिलते हो
..

किसी ने सही कहा है, क्योंकि ईश्वर हर जगह नहीं पहुंच सकता इसलिए उसने माँ को बनाया, माँ ही बच्चे को दुनिया में लाती है, जद्दोजहद से गुजरकर वह उसे दृष्टि देती है, सपने भरती है और एक नई दुनिया गढ़ने का साहस देती है. यह कविता हर माँ की व्यथा को शब्द देती हुई सी लगती है..
मैंने माँ को देखा है

मैंने माँ को देखा है
तन और मन के बीच किसी नदी की तरह
मन के किनारे पर निपट अकेले
और तन के किनारे पर
किसी गाय की तरह बंधे हुए
मैंने माँ को देखा है
..
जाड़ा, गर्मी, बरसात,
सतत् खड़े किसी पेड़ की तरह
..
किसी खेत की तरह जुतते हुए
किसी आकृति की तरह नपते हुए
घड़ी की तरह चलते हुए
...
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए
मैंने माँ को देखा है

पर..माँ को नहीं देखा है
कभी किसी चिड़िया की तरह उड़ते हुए
खुद के लिए लड़ते हुए
बेफिक्री से हंसते हुए
अपने लिए जीते हुए
अपनी बात करते हुए
मैंने माँ को कभी नहीं देखा
मैंने बस माँ को माँ होते देखा है.


यूँ तो संविधान ने हर वयस्क को वोट का अधिकार दिया है, लेकिन उस अधिकार का प्रयोग करने के बाद भी जब समाज में अन्याय खत्म नहीं होता दीखता, तो हर उस युवा का मोहभंग होता है, जो सोचता है कि वह इस अधिकार से कुछ पा गया है...   
उम्र के अठारह वसंत पार करके, खुद-ब-खुद

सब कहते हैं
मेरे पास कुछ है
...
बड़ी ताकतवर चीज है वो
संसद चलाती है
सरकार बनाती है
बड़े-बड़े सूरमा
हाथ जोड़ते हैं
मेरे सामने
..
कि मैं अपने खुरदुरे हाथों से
दे दूँ उन्हें वो चीज
जिसे मैंने पा लिया था
..
मुझे यकीन नहीं होता
कि मेरे पास कुछ है
..
जिसकी कुछ कीमत है
..
बल्कि हर बार ऐसा लगता है कि
आश्रित होने का झूठा भ्रम रचा जाता है
लोकतंत्र की रीढ़विहीन लाश का
बचा हुआ खून चूसने के लिए
...
नया शोषक नए तरीके से
नए जोश और रणनीति के साथ
उम्र के अठारह वसंत पार करके
..
हर बार मुझे लगा है
नपुंसक हूँ मैं
जो नहीं सम्भाल पाया
वो कीमती चीज
जो पा लिया था
छीन लिया शोषक ने
और कर रहे हैं शोषण लोकतंत्र की लाश का
बदल कर चाल-चेहरा
भाषा, रंग और झंडा
खड़े हैं चारों तरफ बदले हुए
..
छीन लेंगे इस बार भी मुझसे
वो चीज जिसे मैंने पाया था
उम्र के अठारह वसंत पार करके
खुद-ब-खुद

कवि कर्म का लक्ष्य क्या है, कोई स्वांत सुखाय लिखता है और दूसरा समाज को राह दिखाने के लिए अथवा तो परिवर्तन की लहर लाने के लिए..इस अंतिम कविता में कवि सत्य के प्रति प्रतिबद्दता व्यक्त करता है, सत्य के लिए वह मर मिटने को तैयार है.

मैंने कलम उठाई है

मेरी कब्र खोदने के लए ही मैंने कलम उठाई है
कुदाली की तरह खोदेगी ये मेरी कब्र
चीटियों के कंधे पर चढ़ कर मैं पहुंचूंगा
उस जगह
जहां मैं आजाद हूँ जाऊंगा
मुसलसल चली आ रही कैद से


..
झंडे के नीचे जमे अँधेरे के खिलाफ
दिया बनने के लिए कलम उठायी है मैंने
ये जानते हुए कि अदना ही सही पर
बड़ा गहरा है ये अँधेरा
..
ये अच्छी तरह जनता हूँ मैं
पर मैंने तय कर लिया है
मैं खुद को मारूंगा
मैंने तय कर लिया है
इस झूठी दुनिया में में सच बोलूँगा.

कवि अनुराग अनंत की रचनाएँ जहाँ एक ओर मन को झिंझोड़ती हैं वहीं एक नया जोश भी भरती हैं, समाज और देश में चल रहे अन्याय और असमानता के प्रति विद्रोह व्यक्त करने का मार्ग दिखाती हैं. आशा है आप सभी सुधी पाठक जन इन्हें पढ़कर अवश्य स्पंदित होंगे.
















बुधवार, अक्टूबर 5

सूरज ऐसा पथिक अनूठा


सूरज ऐसा पथिक अनूठा

रोज अँधेरे से लड़ता है
रोज गगन में वह बढ़ता है,
सूरज ऐसा पथिक अनूठा
नित नूतन गाथा गढ़ता है !

नित्य नए संकट जो आते
घनघोर घटाटोप बन छाते,  
चीर कालिमा को अम्बर में
घोड़े सूरज के हैं जाते !

न कबीर हम न ही गाँधी
हमें कंपा जाती है आंधी,
नहीं जला सकते घर अपना
नहीं भुला सकते निज सपना !

जीवन के सब रंग हैं प्यारे
भ्रम तोडना नहीं हमारे,
रब से हम सुख ही चाहते
बना रहे सब यही मांगते !

न द्वेष रहे न रोष जगे
भीतर इक ऐसा होश जगे,
सूरज सा जलना सीख लिया
जिसने, वह हर पल ही उमगे !

रविवार, जून 12

बुद्धों की कीमत न जानी


बुद्धों की कीमत न जानी

यह दुनिया की रीत पुरानी
बुद्धों की कीमत न जानी,
जीवित का सम्मान किया न
बाद में पूजी उनकी वाणी !

ईसा को सूली पे चढाया
गाँधी को गोली से उड़ाया,
जहर का प्याला सुकरात को
महावीर को बहुत सताया !

जीवित संत को कुछ ही समझें
बाद में उन पर फूल चढाते,
तेरी जान की कीमत बाबा
पत्थर दिल ये समझ न पाते !

जब भी दुनिया को समझाने
संत कभी धरती पर आया,
नादां, भोली इस दुनिया ने
उनके भीतर रब न पाया !

बाद में पूजा मूरत गढ़ के
जीवित बुद्धों को दुत्कारा,
अजब खेल यह चलता आये
अपने संतों को ठुकराया !

बाबा तू अनमोल है कितना
कोई कहाँ यह बता सका है,
प्रेम भरा दिल तेरा बाबा
स्वयं ही स्वयं को जान सका है !

अनिता निहालानी
१२ जून २०११