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शनिवार, जुलाई 3

दिल को अपने क्यों नहीं राधा करें

दिल को अपने क्यों नहीं राधा करें


जिंदगी ने नेमतें दी हैं हजारों 

आज उसका शुक्रिया दिल से करें, 

चंद लम्हे ही सदा हैं पास अपने 

क्यों न इनसे गीत खुशियों के झरें !


दिल खुदा का आशियाना है सदा से 

ठहर उसमें दर्द हर रुखसत करें, 

आसमां हो छत धरा आंगन बने 

इस तरह जीने का भी जज्बा भरें !


वह बरसता हर घड़ी जब प्रीत बन 

मन को अपने क्यों नहीं राधा करें, 

दूर जाना भी, बुलाना भी नहीं 

दिल के भीतर साँवरे नर्तन करें !


झुक गया यह सिर जहाँ भी सजदे में 

वह वही है, क्यों उसे ढूंढा  करें, 

मांगना है जो भी उससे माँग लें 

मांगने में भी भला क्यों दिल डरें !


उर खिलेगा जब उठेगी चाह उसकी 

फूल बगिया में अनेकों नित खिलें, 

शब्द का क्या काम जब दिल हो खुला 

भाव उड़के सुरभि सम महका करें !

 

शनिवार, दिसंबर 12

सुख-दुख

सुख-दुख 
जो भी खुद से जुदा होता है 
करीब उसके खुदा होता है 

बनी रहती है जब तक भी खुदी 
कहाँ कोई खुद से मिला होता है 
पहले मिलना फिर बिछड़ना खुद से 
यही इबादत का सिलसिला होता है 

उलट दो ‘खुद’ को तो बन जाता है  ‘दुख’
 छिपा था सामने आ जाता है 
सुख के पीछे खड़ा ही था खुस(खुश)  
रब के साये में सुकून सदा होता है 

हर्फों की माया है यह जहान सारा
‘चुप’ में ही वह मालिक बसा होता है 
वही सबसे करीब है उसके 
जिसकी फितरत में होना फना होता है

 


मंगलवार, मई 5

हर ख्वाहिश पे दम निकले


हर ख्वाहिश पे दम निकले 


सूची ख्वाहिशों की चुकने को नहीं आती
तुझसे मिलने की सूरत नजर नहीं आती 

या खुदा ! तू छुपा नहीं है लाख पर्दों में 
नजरें अपनी ही तेरी तरफ नहीं जातीं 

सच है कि तुझसे मिलने की तड़प थी दिल में 
पीछे मंशा क्या थी यह कही नहीं जाती 

तुझसे है जमाना यह जान भी तुझसे है 
जानकर भी खलिश दिल की कहीं नहीं जाती 

तेरी माया के जाल बड़े ही गहरे हैं 
उससे बचने की तदबीर भी नहीं आती 

जमाना 'वाह'  कह उठे इसी पे मरते हैं 
तेरी खामोश जुबां समझ में नहीं आती 

कभी दौलत कभी शोहरत को तवज्जो दी 
बर्बादी खुद की खुद को नजर नहीं आती


बुधवार, नवंबर 6

भोर के तारे सा छुप जाएगा जग


भोर के तारे सा छुप जाएगा जग 



बंद आँखों से जमाना देखते हैं हम कहाँ अक्सर हकीकत देखते हैं चाह की चादर ओढ़ायी थी किसी ने यूँही अपना हक समझ कर देखते हैं दोनों हाथों से जकड़ चलते रहे दिल को ही बढ़कर खुदा से देखते हैं जिस राह पर दुश्वारियां मंजिल नहीं ख़्वाब उस के ही दिलों में देखते हैं भोर के तारे सा छुप जाएगा जग पत्थरों में निशां उसके देखते हैं जो सुकूं का, है समंदर प्रीत का भी उसे सदियों दूर से ही देखते हैं आसमां है बदलियां, बारिशें, धूप जो जरूरी जुड़ उसी से देखते हैं

शुक्रवार, जून 15

ईद के मौके पर एक इबादत


ईद के मौके पर एक इबादत

इक ही अल्लाह, एक ही रब है,
एको खुदाया, उसी में सब है !

अंत नहीं उसकी रहमत का
करें शुक्रिया हर बरकत का,
जो भी करता अर्चन उसकी
क्या कहना उसकी किस्मत का !

जग का रोग लगा बंदे को
‘नाम’ दवा, कुछ और नहीं है,
मंजिल वही, वही है रस्ता
उसके सिवाय ठौर नहीं है !

सारे जग का जो है मालिक
छोटे से दिल में आ रहता,
एक राज है यही अनोखा
जाने जो वह सुख से सोता !

तू ही अव्वल तू ही आखिर
तू अजीम है तू ही वाहिद,
दे सबूर तू नूर जहां का
तू ही वाली इस दुनिया का !

अल कादिर तू है कबीर भी
तू हमीद तू ही मजीद भी,
दाता, राम, रहीम, रहमान
अल खालिक खुदा मेहरबान !

तेरे कदमों में दम निकले
दिल में एक यही ख्वाहिश है,
तेरा नाम सदा दिल में हो
तुझसे ही यह फरमाइश है !

शुक्रवार, जून 23

अंतर इक दिन बने प्रार्थना


अंतर इक दिन बने प्रार्थना


उसके सिवा न कोई जग में
उसकी ही ख़ुशबू कण-कण में,
उससे ही प्रकटी हर शै है
उसकी ही प्रतिमा हर मन में !

ऐसा है वह, वैसा है वह
जाने कितने रूप बनाये,
दूर खुदा से अब भी उतना
मंदिर-मस्जिद रोज बनाये !

छिपी प्रीत है भीतर गहरे
अंतर है सूना का सूना,
अनजाना ही जग रह जाये
हर सूं फैला जलवा उस का !

पहली पुलक प्रेम है उसका
प्रेम ही पूजा, आराधना,
धीरे-धीरे लगे महकने
उर एक दिन बने प्रार्थना !

द्वार दिलों के रहें न उढ़के,
 प्रेम छलकता आता पल में,
कोमल सा अहसास खुदा है
जाना जाता सदा प्रेम में !

रतन अमोल छिपा तकता है
ढूँढ ले कोई खोया प्यार !
शब्द बड़े छोटे पड़ जाते,
मौन में बहती मदिर बयार !






सोमवार, फ़रवरी 8

उसका मिलना


उसका मिलना


याद आता है कभी ?
माँ का वह रेशमी आंचल
छुअन जिसकी सहला भर जाती थी
 अँगुलियों के पोरों को
भर जाता था मन आश्वस्ति के अमृत से
दुबक कर सिमट जाना उस गोद में
अभय कर जाता था
नजर नहीं आती थी जब छवि उसकी
डोलती आस-पास
तो पुकार रुदन बनकर
फूट पडती थी तन-मन के पोर से
खुदा भी उसके जैसा है
जिसकी याद का रेशमी आंचल
अंतर को सहला जाता है
जिसकी शांत, शीतल स्मृति में डूबते ही
सुकून से पोर-पोर भर जाता है
माँ को पहचानता है जो वही उसे जान पाता है !

याद आता है कभी ?
पिता का वह स्नेहाशीष सिर पर
या उससे भी पूर्व उसकी अँगुलियों की मजबूत पकड़
राह पर चलते नन्हे कदमों को
जब सताती थी थकन
कंधे पर बैठ उसके मेलों में किये भ्रमण
खुदा भी उसके जैसा है
वह भी नहीं छोड़ता हाथ
अनजाने छुड़ाकर भाग जाएँ तो और है बात
पिता को मान देता है जो अंतर
वही उससे प्रीत लगा पाता
और गुरू तो मानो
जीवंत रूप है उस एक का
सही राह पर ले जाता
 गड्ढों से बचाता  
जिसने गुरु में उसे देख लिया
रूबरू एक दिन वही उससे मिल पाता !




सोमवार, जुलाई 20

खुदा यहीं है !


खुदा यहीं है !

नहीं, कहीं नहीं जाना है
कुछ नहीं पाना है
गीत यही गाना है
खुदा यहीं है !
एक कदम भी जो बढ़ाया
एक अरमान भी जो जगाया
एक आँसू भी जो बहाया
झपकाई एक पलक भी
तो दूर निकल जायेंगे  
इतना सूक्ष्म है वह कि
सिवा उसके, उसकी जात में
कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई गम तो दूर
ख़ुशी की बात भी बेगानी है
अब न कोई फसाना बचा
 न ही कोई कहानी है
वह जो होकर भी नहीं सा लगता है
अजब उसकी हर बयानी है
उसको जाना यह कहना भी
मुनासिब नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई सफर न कोई मंजिल बाकी
दामन में बस यह एक पल  
और कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
नहीं चाहत किसी को समझाने की
 बेबूझ सी इस बात पर
करता कौन यकीं है
खुदा यहीं है !




शनिवार, जनवरी 31

एक इल्तजा


एक इल्तजा


दबा न रहे राख में दहकने दो अंगारा
मखमली सुर्ख चमकने दो अंगारा,
जल जाने दो हर सूं... कि निखर आएगा रूप
बरस जाने के बाद ज्यों खिल के निकले है धूप !

रहे न कोई पर्दा आज गिर जाने दो हर दीवार
कभी तो हो वह सामने... कभी तो हो दीदार
हट जाने दो हर शर्मोहया आज सामने आओ
फिर न मिलेगी यह रात अब न शरमाओ !

ओ खुदा ! अब न तुझे दूर से पुकारेंगे
तेरे हैं हम हक से तुझे निहारेंगे
अब निभाने होंगे वे सारे वादे तुझे
नहीं बहला सकेगा अब दूर से मुझे !

अजीब बात है यह वह ही लिखवाता है
खुद से मिलने के सिले किये जाता है,
‘मैं’ तो हूँ ही नहीं इस कहानी में
 बस थामी है कलम हाथ में, नादानी में !


सोमवार, जुलाई 22

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आप सभी को शुभकामनायें

गुरु पूर्णिमा 

सदगुरु दूत खुदा का न्यारा
उसकी ओर ही करे इशारा I

जग को रब की खबर सुनाये
उस जैसा ही नेह लुटाए I

एक यही लाया पैगाम
कण-कण में व्यापा है राम I

साक्षी है वह परम ब्रह्म का
राज खोलता सृष्टि भ्रम का I

सदगुरु जीवन का संगीत
पोर-पोर से गाये गीत I

सबका पल पल रखता ध्यान
सदा सभी को अपना मान I

सदगुरु दूर करे अज्ञान
प्रेम भरे मिटा अभिमान I

सदगुरु शिखरों पर ले जाये
मन को सुंदर पंख लगाये I

जैसे एक अलौकिक घटना
सदगुरु सुंदर सच्चा सपना I

दूर करे हर चिंता मन की

पकड़ा दे मस्ती जीवन की I

बुधवार, जनवरी 9

स्वयं में भी जीवन उगता है


स्वयं में भी जीवन उगता है


सबको खुश करते करते ही
हँसना हम स्वयं भूल गए,  
सबको अपने पास किया था
खुद से ही दूर निकल गए !

भय ही एक सूत्र में बांधे
प्रेम कहाँ दीखे जग में,
मिले अभय जब थामें खुद को
फूल झरा करते मग में !

जो स्वभाव में टिकना सीखे
वही खुशी को पा सकता है,
जिसने खुद को पाया खुद में
वही खुदा तक जा सकता है !

नजर हटे जब अन्यों से तो
स्वयं में भी जीवन उगता है,
भीतर एक उजाला भरता
निर्झर कोई झर-झरता है !

क़ुरबानी के नाम पे अक्सर
दर्द दिया खुद को हमने,
इसी दर्द को बांटा जग में
फिर क्यों उठे शिकायत मन में !

जो आनंद से भर जाता है
वही सुगंध बिखेरे जग में,
वही वृक्ष छाया दे सकता
जो भर जाता है खुद में !

पहले खुद को प्रेम से भर लें
शेष सहज ही सब घटता है,
न भीतर कुछ हानि होती
बल्कि हर सुख बढता है !


गुरुवार, जुलाई 26

एक बातचीत


एक बातचीत

न आये थे अपनी मर्जी से
न ही जायेंगे...
तू ही लाया..ले भी जाना जब चाहे
हम न आड़े आएँगे
तेरी हवा से धौंकनी चलती है
श्वासों की
तेरी गिजा से देह..
मिला मौका सजदा करने का
तेरी जमीं पर
गुनगुनाने का
तेरे आसमां तले
क्या हम काबिल थे इसके..
तेरी जन्नत को दोजख बनाने के सिवा
क्या आता है हमें...
तेरी रहमत को देखकर भी
सिवा आँखें चुराने के
क्या किया है हमने
तेरी मुहब्बत की परवाह न करें
तुझसे बस शिकवा किया करें
(तेरे बन्दों से शिकवा तुझसे ही हुआ न )
ओ खुदा...बस यही एक बात है
जब तब आ जाता है
तेरा नाम जुबां पर
तेरा ख्याल जहन में
और वही पल होता है
जब सुकून मिलता है
भीतर तेरी याद कौंध जाती है
तू अपना है तभी न अपना सा लगता है
जगत यह दिखता हुआ भी सपना लगता है
छिपा है तू सात पर्दों के पीछे
फिर भी झलक दिख जाती है
झाँकू जब किसी बच्चे की आँखों में
तेरी ही सूरत नजर जाती है...