रविवार, अगस्त 31

कोई सागर रहता है

कोई सागर रहता है



नयनों से जो खारा पानी
हर्ष-विषाद में बहता है,
खबर सुनाता, सबके भीतर
कोई सागर रहता है !

सुनना होगा उन लहरों को
अंतर में जो बांच रहीं,
देख आत्मा के चंदा को
देखो कैसे नाच रहीं !

सागर तट पर रहते आये
गहराई में चमचम मोती,
डूब गया मन जिसका उसमें
स्वर्णिम, स्वर्गिक मिलती ज्योति !

शंका और समर्पण जब तक
दो पतवार रहेंगी संग-संग,
डांवाडोल रहेगी नौका
जीवन सागर के जल में !




शनिवार, अगस्त 30

साझीदार


साझीदार


परमात्मा को हटा दें तो
इस जगत में बचता ही क्या है ?
उसका ऐश्वर्य !
उसकी विभूतियाँ और अनंत साम्राज्य !
मानव चाहे तो बन सकता है
उसका साझीदार
अन्यथा रह सकता है मात्र पहरेदार !
चुनना है उसे
मान अपना निहारना
या पुकारना
(जैसे कि वह कहीं दूर हो)
भीतर झाँकते ही द्वार खुलने लगता है
जैसे जल में डोलती नौका को
 मिल जाता है आधार
अथवा तो कम्पित उर को
आश्वस्ति भरा स्वीकर
प्रेम को हटा दें तो
जीवन में बचता ही क्या है ?
उसका अपनापन ! आत्मीयता और दुलार !
उसका अनंत फैलाव
मानव चाहे तो खो सकता है
अपना अहंकार
अन्यथा करता रह सकता है
संबंधों में व्यापार !

शुक्रवार, अगस्त 29

गणपति का आगमन


गणपति का आगमन



जब ठहर जाएगा मन अपने आप में
जब मिलन होगा शक्ति का शिव से
तब गणपति का आगमन होगा भीतर
अभी तो दौड़ रहा है हजार-हजार रूपों में बाहर  
एक दिन तो थक जायेगा
उसके बाद भी हवाएं स्पर्श करेंगी पर उसमें
शुभता की खबर होगी
पंछी बोलेंगे पर उसमें विघ्नहर्ता का स्तवन होगा
स्वाद मोदकों का मधुतर हो जाएगा
उनमें उसका स्वाद भी मिल जायेगा
तब जीवन का अर्थ मिलता है
जब किसी के अंतर में यह मिलन घटता है !


गुरुवार, अगस्त 28

वर्तन सृष्टि का

वर्तन सृष्टि का


माँ की गोद की तरह थामे है धरा
आकाश सम्भाले है पिता के हाथ की मानिंद
मखमली गलीचों से बढ़कर
कोमल दूब का स्पर्श
जो भर जाता है एक अहसास आनिंद !
स्वर्ग और कहाँ होगा कभी ?
नाचते हुए मोर देखे हैं अभी  
सुनी है पंछियों की रुनझुन
रंगो का यह अनोखा फैलाव
सागर का उतार और चढ़ाव
झुकता हर शाम लाल फूल
पर्वतों के पीछे उन अदृश्य चरणों पर
अनुपम है चमकीले सितारों का झुरमुट
कैसा अनोखा यह वर्तन सृष्टि का
खो जाता संसार और हर तरफ
है जलवा उसी का !  

बुधवार, अगस्त 27

ये जो सामने

ये जो सामने

नीला आकाश दिख रहा है
श्वेत हल्के मेघों से आवृत
जिसमें अभी-अभी एक पंछी तिरता हुआ
निकल गया है
जिसको छूने की होड़ में
बढ़ती चली जाती है
धरा की कोख से उगी हरियाली
ऊंचे वृक्षों की कतारें
रोकती हैं दृष्टि पथ
क्षितिज का
जिसके नीचे मंडरा रही हैं
 तितलियाँ सुमनों पर
ये गवाह है
अनगिनत सृष्टियों का
अथवा तो घट रहा है इसके नीचे
हर युग.. एक साथ.. अभी इस क्षण !
क्यों कि अनंत है आकाश
कालातीत और भविष्य द्रष्टा भी !


मंगलवार, अगस्त 26

ये नन्ही नन्ही चिड़ियाएँ


ये नन्ही नन्ही चिड़ियाएँ


श्वेत और श्याम पर हैं जिनके
चुन-चुन कर लाती है घास की लतरें
छोड़ आती हैं एक घन वृक्ष की
शाखाओं और पत्तियों में
एक नीड़ का फिर निर्माण हो रहा है
सृष्टि चक्र यूँ ही बहा जा रहा है
तांक-झांक करता है काग एक वहाँ आकर
जाने क्यों चिड़ियाएँ अगले ही पल नजर नहीं आतीं
शायद गयी हैं दूर लम्बी उड़ान पर
अथवा तो खोज में किसी कीट या पदार्थ के ! 

रविवार, अगस्त 24

सत्य से पहचान

सत्य से पहचान 



झूठ से ही परिभाषित करते हैं  
‘स्वयं’ को जब हम
तब छले जाते हैं बार-बार
“जो है” जब उस पर नजर नहीं जाती
‘जो होना चाहते हैं’ की चाह में जले जाते हैं
“जो है” शुभ है, सुंदर है, सत्य है
इसे भुलाकर
घेर लेते हैं अपने चारों पर एक असत्य
व्यर्थ ही कैद होते हैं पिंजरों में
और झूठी आशा में जिए जाते हैं  
 ‘स्वयं’ को करते सीमाओं में कैद
 मन, कभी अहंकार के हाथों
अपने ही मूल को डसते हैं
जाने कैसा रोग लगा है
‘जो है’ स्वीकार करना नहीं सीखा
सच के आईने में स्वयं को अभी नहीं देखा
मृण्मय है जो माया
उसको तो हमने बहुत सजाया
सम्मान के लोभ में  
खुद को कहीं पीछे छोड़ आये
एक बेहोशी के आलम में
स्वप्नों की दुनिया बसाना चाहते हम
सत्य से हर बार बच कर निकल आये 
समिधा बनेगा अंतर का हर भाव 
यहाँ तक कि हर दुराव व छिपाव 
स्वयं की अग्नि तभी होगी दीप्त 
छा जायेंगे मेघ चिदाकाश में 
सत्य बरसेगा !
अतीत, वर्तमान, व भविष्य 
गायेंगे जब समवेत स्वरों में 
जीवन की ऋचाएं 
मन वर्तिका जलेगी ज्ञानाग्नि में 
यज्ञ पुरुष सत्य बन प्रकटेगा !




शुक्रवार, अगस्त 22

जब

जब



औघट राह टूटा कगार
थाह नहीं पाए कोई,
कंटक पथ पथराये नैना
पार कहाँ जाये कोई !

मति कुंठित सोया विवेक
जब, कुंद हुई दृष्टि सबकी,
हित अनहित भी नहीं सूझता
क्षार हुई सृष्टि मन की !

हृदय भ्रमित गान अधूरा
स्वप्न खंडित सा कोई,
कहाँ जाना ? किसे जाना ?
जानता यह कहाँ कोई ! 

गुरुवार, अगस्त 21

जगे नयना इस जतन में

जगे नयना इस जतन में

शब्द चुन-चुन के सजाए
भाव के दीपक जलाए,
पहर बीते सो न पाए
गीत इक जन्मा था तब !

कुछ घटेगा आस मन में
तम छंटेगा इस चमन में,
जगे नयना इस जतन में
प्रीत इक जन्मी थी तब !

है नहीं... वही तो है
शै दिखे... यही तो है,
 ढूँढें जिसे.. कहीं तो है
विश्वास इक जन्मा था तब !  


बुधवार, अगस्त 20

फिर भी अनछूया ही रहता



फिर भी अनछूया ही रहता



बन मलयज वन-वन डोल रहा
शशि मुख से बदली खोल रहा
तू पुहिन बिंदु बन कर ढुलका

जल में जीवन रस घोल रहा !

साँझ-सवेरे, विपिन घनेरे
पंकज पादप, मानुष चेहरे,
सब तेरी ही कथा सुनाते


दिवस मनोहर घोर अँधेरे !

हर शब्द तुझे इंगित करता
हर भाव तुझे मन में भरता,
हर भाषा तुझको ही गाती 
फिर भी अनछूया ही रहता !







सोमवार, अगस्त 18

जैसे

जैसे


उतरा हो वसंत
मन उमग रहा
उसकी आहट है !

खिले पलाश मधु बरसा
पादप-पादप सुख से सरसा
गाती कोकिल भावों का उड़ा पराग
फिर भी न जाने कैसी अकुलाहट है !

चिर प्रतीक्षा थी जिसकी
पाहुन वह घर आया
पोर-पोर में धुन बजती
ज्यों अंतर कलिका खिलती
किसलय रक्तिम ज्यों नाच रहे
तितली दल खुशबू बांछ रहे
उर में उडती सी आस लिए
यह कैसी घबराहट है !

उर्वर मन का कोना-कोना
मौन कोख माटी की ज्यों हो
बीज प्रतीक्षा का था बोया
सिंचन करने मन था रोया
 आज खिले हैं जूही, चम्पा
भूल गयी काली रातें वे
बिसर गयीं घन बरसातें वे
फिर भी न जाने क्यों
शंकित सी बुलवाहट है !


रविवार, अगस्त 17

वह बात

 वह बात


एक बात जो दिल के करीब है
भिन्न-भिन्न शक्लें इख़्तियार कर लेती है
और घूम-घूम कर आ जाती है
हर बात में शामिल होने
जैसे गायक बार-बार गाता हो
टेक की पंक्ति को
या चित्रकार रचता हो नये-नये चित्र
पर अपनी छोड़े जाता हो हरेक में
या कोई मूर्तिकार झलक जाता हो
उसकी हर मूर्ति में
उसके हर शिल्प में
वह बात चाहे हजार बार कही गयी हो
नई सी लगती है हर बार
जैसे सावन की हर बरसात पहले से अलग होती है
कभी टूट पड़ते हैं बादल
कभी फुहार बनकर धरा का स्पर्श भर करते हैं
कभी तड़-तड़ गिरते हैं संग ओलों के
कभी हवा के संग बस गगन में तिरते हैं
ऐसे ही वह बात है
जो कभी पूरे विश्वास से दोहराई जाती है
कभी इशारा भर होता है उसकी ओर
प्रकटती है कभी आनन्द का गीत बनकर
तो कभी संदेशा लाती है अश्रुओं का
जीवन का प्रतीक ही नहीं
बन जाती है कभी मृत्यु का प्रतीक भी
पूर्णता को प्राप्त नहीं होती
हर बार अधूरी ही रह जाती है
इक बात जो हर बात का आधार है शायद
स्वयं आधारहीन नजर आती है
क्योंकि उसके आते ही लोग इधर-उधर देखने लगते हैं
कभी कोई देखता है घड़ी की ओर
और जम्हाई लेता है कोई
कोई-कोई ही तन्मय हो जाता है
पर उसके चेहरे पर शून्य पसर जाता है
इस वायवीय सी बात पर यकीन करे या नहीं
समझ में नहीं आता
वह बात जो दिल के करीब है....



शनिवार, अगस्त 16

दूर सागर से रहेगा

दूर सागर से रहेगा


दायरों में जी रहा हो
नहर बन कर जो बहा हो
दूर सागर से रहेगा !

दूर दुःख से भागता हो
सुख ही केवल माँगता हो
पीर मन की ही सहेगा !

स्वयं को ही पोषता हो
आत्म को ही तोषता हो
कब किसी से वह मिलेगा !

धरा को जो शोषता हो
गगन में विष छोड़ता हो
आदमी क्योंकर बचेगा !

भूत को ही रहा ढोता
जिंदगी तज मौत चुनता
कब तलक जीवन सहेगा !