बुधवार, फ़रवरी 27

भारत


भारत

आज समरांगण बना शांति प्रिय यह देश !

अहिंसा परम धर्म, हिंसा इसे न भायी
हो विवश निज रक्षा हित बंदूक उठायी

युद्ध का मैदां बना अमन का यह देश !

‘अतिथि देवो भव’ कह आगत सत्कार किया
आतंकी जब बना हो विवश प्रहार किया

रक्त रंजित हुआ प्राचीनतम यह देश !

समिधा बना जीवन हवाएं भयीं शीतल
आहुति देती समर्थ वीरसेना प्रतिपल

गौरवान्वित हुआ यह कृष्ण वाला देश !


शनिवार, फ़रवरी 23

एक जागरण ऐसा भी हो



एक जागरण ऐसा भी हो


पल में गोचर हो अनंत यह
इक दृष्टिकोण ऐसा भी हो,
जिसकी कोई रात न आये
एक जागरण ऐसा भी हो !

कुदरत निशदिन जाग रही है
अंधकार में बीज पनपते,
गहन भूमि के अंतर में ही
घिसते पत्थर हीरे बनते !

राह मिलेगी उसी कसक से
होश जगाने जो आती है,
धूप घनी, कंटक पथ में जब
एक ऊर्जा जग जाती है !

प्रीत चाहता उर यदि स्वयं तो

अप्रीति के करे न साधन,
मंजिल की हो चाह हृदय में
अम्बर में उड़ने से विकर्षण ?


डोर बँधी पंछी पग में जब
कितनी दूर उड़ान भरेगा,
सुख स्वप्नों में खोया अंतर
दुःख की पीड़ा जाग सहेगा !





बुधवार, फ़रवरी 20

नभ झाँके जिस पावन पल में


नभ झाँके जिस पावन पल में



सुखद खुमारी अनजानी सी
‘मदहोशी’ जो होश जगाए,
सुमिरन की इक नदी बह रही
रग-रग तन की चले भिगाए !

नीले जल में मन दरिया के
पत्तों सी सिहरन कुछ गाती,
नभ झाँके जिस पावन पल में
छल-छल कल-कल लहर उठाती !

छू जाती है अंतर्मन को
लहर उठी जो छुए चाँदनी,
एक नजर भर देख शशी को
छुप जाती ज्यों पहन ओढ़नी !


मंगलवार, फ़रवरी 19

सुख की परछाई है पीड़ा




सुख की परछाई है पीड़ा

सुख की चादर ओढ़ी ऐसी
धूमिल हुई दृष्टि पर्दों में,
सच दिनकर सा चमक रहा है
किन्तु रहा ओझल ही खुद से !

सुख मोहक धर रूप सलोना
आशा के रज्जु से बांधे,
दुःख बंधन के पाश खोलता
मन पंछी क्यों उससे भागे ?

सुख की परछाई है पीड़ा
दुःख जीवन में बोध जगाता,
फिर भी अनजाना भोला मन
निशदिन सुख की दौड़ लगाता !

क्यों उस सुख की चाह करें जो
दुःख के गह्वर में ले जाये,
अभय अंजुरी पीनी होगी
तज यह भय सुख खो ना जाये !


शनिवार, फ़रवरी 16

ऐसा है वह अनंत


ऐसा है वह अनंत

चादर की तरह लपेट लिया है काँधे पर
उसने नीले आकाश को
मस्तक पर चाँद की बिंदी लगाये
धार लिया है सूरज वक्षस्थल पर गलहार में
आकाश गंगाएं उसकी क्रीडा स्थली हैं
सितारों को पहन लिया है कानों में
बादलों में छिपी बूँदें
बन गयी हैं पाजेब पैरों की
दिशाओं को भर लिया है हाथों में
ऐसा है वह अनंत
उसे कोई भी नाम दो
हर रोज उतरता है धरा पर
साथ जागरण के
हर रात झांकता है नींद में !

शुक्रवार, फ़रवरी 15

तृष्णा दुष्पूर है


तृष्णा दुष्पूर है

कश्मीर को भारत से
अलग करने की तृष्णा की आग में
जलता हुआ पाकिस्तान
बाँट रहा है वही हिंसा की आग
 विश्व देख रहा है विनाश के इस पागलपन को
कभी धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला
 कश्मीर आज जल रहा है
और जल रहे हैं अमन बहाल करने वाले वीर
महर्षि कश्यप की तप स्थली रही यह घाटी
जो वेदों के गान से गुंजित थी
रक्त रंजित है आज
जो कभी सम्राट अशोक के साम्राज्य का भाग थी
विक्रमादित्य के कदम भी पड़े थे जहाँ
मौजूद हैं जहाँ गणपति और भवानी के मन्दिर
महाभारत काल से
ऋषि परंपरा और सूफी इस्लाम की
शांति पूर्ण सहभागिता से पोषित
सिखों के महाराजा हरिसिंह की पावन धरा
 आज पुकारती है इंसाफ के लिए
दम घुटता है उसका
बमों और हथियारों के साये में
जीने को विवश हैं जहाँ लोग
भारत की शान और मान
पूछती है काश्मीर की यह घाटी
न जाने कितने वीरों को और बलिदान देना होगा
न जाने कब यहाँ शांति का फूल खिलेगा
प्रश्न ही प्रश्न हैं उत्तर कौन देगा ..?


बुधवार, फ़रवरी 13

तू महासूर्य मैं एक किरण




तू महासूर्य मैं एक किरण


तू महासूर्य मैं एक किरण
तू सिंधु अतल हूँ लहर एक,
मैं भ्रमर बना डोला करता
शुभ खिला हुआ तू कमल एक !

मैं श्वेत श्याम घन अम्बर का
तू विस्तारित नील आकाश,
मैं गगन तारिका जुगनू सम 
तू ज्योतिर्मया महा प्रकाश !

तू महा आरण्य चन्दनवट
मैं कोमल डाली इक वट की,
तू ज्वाला का इक महाकुंड
मैं लघु काया इक चिंगारी !

तू अन्तरिक्ष है अंतहीन
छोटा सा ग्रह मैं घूम रहा,
तू महाप्रलय सा दीर्घ पवन
मैं मंद समीरण बन बहता !

रविवार, फ़रवरी 10

जाने कितने पर्वत नापे


जाने कितने पर्वत नापे


अनगिन बार खिलाये उपवन,
कंटक अनगिन बार चुभे हैं,
जाने कितने पर्वत नापे
कितनी लहरों संग तिरे हैं !

मंजिल अनजानी ही रहती
द्वार न उसका खुलता दिखता,
एक चक्र में डोले जीवन
सार कहीं ना जिसका मिलता !

बार-बार इस जग में आकर
दांवपेंच लड़ाए होंगे,
अंधकार में ठोकर खाकर
फिर-फिर नैन गँवाए होंगे !

भय भीत पर खड़ा है जीवन
कैसे मन को विश्राम मिले,  
सत्य से आँख मिले न जब तक
क्योंकर अंतर में राम मिले !


शनिवार, फ़रवरी 9

सरहद पर बर्फीले पर्वत



सरहद पर बर्फीले पर्वत



कण-कण में भारत धरती के
बहता एक शाश्वत सँजीवन,
दूर पूर्वी अंचल में जब
उगती नभ में अरुणाभ, नमन !

सरहद पर बर्फीले पर्वत
कहीं सिंधु, रेतीले निर्जन
रक्षित करने को तत्पर है
सेनानी का तन मन अर्पण !

जयहिन्द मधुर नाद गूँजता
अंतर में हिलोर इक उठती,
नदिया, पर्वत, कानन, अम्बर
हर कोने को छू विहंसती !

पुण्य भूमि यह पुण्य शील है
राम, कृष्ण, बुद्धों की आभा,
गंगा, कावेरी, सतलज से
सिंचित है जन-जन की आशा !

आज नवल रवि दस्तक देता
कोटि-कोटि भाारतवासी को,
 पुरुषार्थ कर इसे संवारें
अवसर मिलता सौभागी को !



शुक्रवार, फ़रवरी 8

रस की धार निरंतर बहती



रस की धार निरंतर बहती

देह व मन के घाट अधूरे 
इन पर ही जो डाले डेरा, 
उस से कैसे नैन मिलेंगे 
स्वयं के घर न डाला फेरा !

एक पिपासा जगे न जब तक 
राह नहीं निज घर की मिलती, 
सूना सा घर-आँगन तन का 
 मन में कोई कली न खिलती ! 

रस की धार निरंतर बहती 
बाहर ढूँढ़ रहा जग सारा, 
कोई अपना हाथ पकड़ ले 
दिखला दे वह कूल किनारा ! 

बंटती तृप्ति बिन मोल जहाँ 
सहज सुखों का एक भंडार, 
गली-गली क्यों फिरता आखिर 
निज आँचल में बांधे प्यार ! 


मंगलवार, फ़रवरी 5

नव बसंत आया



नव बसंत आया

Image result for सरसों का खेत
सरसों फूली कूकी कोयल
पंछी चहके कुदरत चंचल,
नवल राग गाया जीवन ने
नव बसंत लाया कोलाहल !

भँवरे जैसे तम से जागे
फूल-फूल से मिलने भागे,
तितली दल नव वसन धरे है
मधुमास कहता बढ़ो आगे !

आम्र मंजरी बौराई सी
निज सुरभि कलश का पट खोले,
रात-बिरात का होश न रखे
जी चाहे जब कोकिल बोले !

कुसुमों में भी लगी होड़ है
धारे नूतन रूप विकसते,
हरी-भरी बगिया में जैसे
कण-कण भू का सजा हुलसते !

किसके आमन्त्रण पर आखिर
रंगों का अंबार लगा है,
पवन बसंती मदमाती सी
मनहर बन्दनवार सजा है !

शीत उठाये डेरा डंडा
चहूँ ओर भर गया उल्लास,
नई चेतना भरने आया
समाई जीवन में नव आस !