गुरुवार, जुलाई 30

कुछ पल


कुछ पल

ऐसे भी होते है कुछ पावन पल
जब खो जाती है प्रार्थना  
क्योंकि दो नहीं हैं वहाँ
नहीं घटती पूजा... उस निशब्द में  
रह जाता है एक सन्नाटा
और उसमें गूंजती कोई अनाम सी धुन..
निर्निमेष नयन.. और पिघलता हुआ सा अस्त्तित्व
काव्य नहीं झरता..
 कहने को कुछ शेष नहीं है
रह जाता है मौन और उसमें बजता कोई निनाद..
दिपदिप करता उजाला बंद नेत्रों के पीछे
दुनिया होकर भी नहीं है उन अर्थों में
शेष है एक पुलक, कौंध एक
एक अहसास से ज्यादा कुछ नहीं..
बस यही घड़ियाँ होती हैं जीने के लिए..


सोमवार, जुलाई 27

जीवन बंटता ही जाता है



जीवन बंटता ही जाता है


बाँट रहा दिन-रात हर घड़ी
खोल दिए अकूत भंडार,
 युगों-युगों से जग पाता है
डिगता न उसका आधार !

शस्य श्यामला धरा विहंसती
जब मोती बिखराए अम्बर,
पवन पोटली भरे डोलती
केसर, कंचन महकाए भर !

जा सिन्धु में खो जाती हैं
जल राशियाँ भर आंचल में,
नीर के संग-संग नेह बांटती
तट हो जाते सरस हरे से !

जीवन बंटता ही जाता है
मानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !

गुरुवार, जुलाई 23

नया नया सा लगा था सूरज


नया नया सा लगा था सूरज

जाने कितने युग बीते हैं
जाने कबसे जलता सूरज,
आज सुबह जब ताका उसको
नया नया सा लगा था सूरज !

क्या जाने किस बीते युग में
गंगा की लहरों संग खेले,
आज अंजुरि में भर छूआ
याद आ गये लाखों मेले !

जीवन की आँखों में झाँका
अपना ही प्रतिरूप झलकता,
एक सहज लय में गुन्थित हो
श्वासों का यह ताँता ढलता !


सोमवार, जुलाई 20

खुदा यहीं है !


खुदा यहीं है !

नहीं, कहीं नहीं जाना है
कुछ नहीं पाना है
गीत यही गाना है
खुदा यहीं है !
एक कदम भी जो बढ़ाया
एक अरमान भी जो जगाया
एक आँसू भी जो बहाया
झपकाई एक पलक भी
तो दूर निकल जायेंगे  
इतना सूक्ष्म है वह कि
सिवा उसके, उसकी जात में
कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई गम तो दूर
ख़ुशी की बात भी बेगानी है
अब न कोई फसाना बचा
 न ही कोई कहानी है
वह जो होकर भी नहीं सा लगता है
अजब उसकी हर बयानी है
उसको जाना यह कहना भी
मुनासिब नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई सफर न कोई मंजिल बाकी
दामन में बस यह एक पल  
और कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
नहीं चाहत किसी को समझाने की
 बेबूझ सी इस बात पर
करता कौन यकीं है
खुदा यहीं है !




रविवार, जुलाई 19

लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा- (अंतिम भाग)

लद्दाखधरा पर चाँद-धरा


५ जुलाई      
आज लेह में हमारा अंतिम दिन है. कल रात भी स्वप्न में कितने ही दृश्य दिखे, लद्दाख में देखे स्थानों के भी और अन्य भी. स्वप्न अलग थे पर जगते हुए इन दृश्यों को देखना एक अलग अनुभव है. चेतना जैसे ज्यादा मुखर हो गयी है. प्रकाश भी बहुत तीव्र है यहाँ. तेज धूप निकलती है जो ग्लेशियर्स को पिघला रही है. नहरों-नालों में जल का तेज बहाव शुरू हो गया है, जो खेतों को सींचने में काम आयेगा. यहाँ मुख्यतः वर्ष के तीन-चार महीने ही खेती की जाती है. कल शाम हम लेह पैलेस तथा शांति स्तूप देखने गये. लेह महल बहुत पुराना है, यह नौ मंजिला इमारत सत्रहवीं शतब्दी में राजा सेंग्गे नामग्याल द्वारा बनवायी गयी थी, अब इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया गया है. इसे बनाने में मुख्यतः लकड़ी का प्रयोग हुआ है. 
नौ मंजिला लेह महल 
शांति स्तूप जापान के सहयोग से एक पहाड़ी पर बना एक अनोखा स्मारक है जिसमें नीचे बुद्ध मन्दिर है तथा ऊपर भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति, तथा निर्वाण के दृश्यों को मूर्तिकला के माध्यम से दर्शाया गया है. यह १९८५ में पूरा हुआ और दलाई लामा के हाथों इसका उद्घाटन हुआ.
शांति स्तूप 
आज की यात्रा का मुख्य आकर्षण था मेगनेटिक हिल, लिकिरअलची के गोम्पा तथा पत्थर साहेब गुरुद्वारे में दोपहर का लंगर. सुबह नौ बजे नाश्ता करके हम दोरजी की इनोवा में निकले तथा सिंधु व झंस्कर नदी के संगम स्थल पर पहुंचे. दोनों नदियों के जल का रंग भिन्न था यह स्पष्ट दीख रहा था. गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पर्वतों की ढलानों से मिट्टी के साथ पानी तेज गति से बह रहा है, सो मटमैला होने के बावजूद दो रंगों का था. वहाँ रिवर-राफ्टिंग के लिए भी साजो-सामान रखा था. 
दो नदियों का संगम 
मैग्नेटिक हिल पहुंचने पर हमारी कार अपने आप ऊंचाई पर चढ़ने लगी, ऐसा प्रतीत हुआ. लिकिर गोम्पा में भावी बुद्ध कि विशाल स्वर्ण प्रतिमा है जिसे जापान की सहायता से बनाया गया है. मन्दिर में अद्भुत चित्रकला के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन के मुख्य पड़ावों जन्म, ज्ञान प्राप्ति, दानवों पर विजय तथा निर्वाण को दर्शाया गया है. उन दस अर्हतों के भी चित्र वहाँ थे जिन्होंने बुद्द्ध की शिक्षाओं को संकलित किया था. 
बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा 
लेह के पश्चिम में ७० किमी दूर स्थित अल्ची एक हजार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री है, जहाँ मुख्य द्वार तक पहुंचने का मार्ग घुमावदार, शांत व शीतल है, संकरे मार्ग में दोनों और दुकाने लगी थीं. कई विदेशी यात्री वहाँ दिखे जो इतिहास में काफी रूचि दिखा रहे थे. 
अल्ची गोम्पा का मार्ग 
पत्थर साहब गुरुद्वारा भी बहुत भव्य है जो सेना द्वारा संचालित किया जाता है. इसका महत्व इस बात से बढ़ जाता है कि गुरु नानक देव अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान यहाँ ठहरे थे. कहा जाता है कि एक दानव के उनके ध्यान को भंग करने के लिए एक चट्टान उनकी तरफ फेंकी पर उन्हें कोई नुकसान पहुंचाए बिना पत्थर की वह चट्टान वहाँ रुक गयी, जिसे आज तक पूजा जाता है. वहाँ हमने कड़ाह प्रसाद तथा भोजन का प्रसाद ग्रहण किया. लेह शहर में स्थित एक स्थल दातुन साहब के बारे में भी एक पुस्तक में पढ़ा था, जहाँ गुरु नानक ने सोलहवीं शताब्दी में एक वृक्ष लगाया था.
अलची गोम्पा 
इस समय संध्या होने में अभी कुछ समय है. तेज हवा के कारण पेड़ों की टहनियाँ आपस में व टिन के शेड से टकरा रही हैं, जिसके कारण आवाज पैदा हो रही है. धूप सात बजे तक कम होगी तब हम सांध्य भ्रमण के लिए जायेंगे था बाद में आज उतारे फोटो देखेंगे. सामान की पैकिंग लगभग हो चुकी है. कल सुबह आठ बजे की उड़ान से हमें दिल्ली जाना है और परसों इसी वक्त असम में अपने घर में होंगे .                                                                                                                                                               
हवाई जहाज से लिया चित्र

                                                                                                                           
जन्सकर नदी
               
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

शनिवार, जुलाई 18

लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा भाग - ५

लद्दाखधरा पर चाँद-धरा 
२ जुलाई
संध्याकाल में हिमाच्छादित पर्वत 
कल नुब्रा वैली से लौटकर हमने चाय के साथ सैंडविच का आनंद लिया, कुछ देर आराम करने के बाद टहलने गये. लैपटॉप पर वे सारी तस्वीरें देखीं जो पिछले दिनों उतारी थीं. सुबह पांच बजे ही सवेरा हो जाता है यहाँ, प्रातः भ्रमण से लौटते समय रनवे पर उतरते हुए एक हवाई जहाज की तस्वीर उतारी. आज नाश्ते में कुक ने आलू-टमाटर की सब्जी और पूरी बनाई साथ में रोज कि तरह दही. इस समय भाई अपने दफ्तर चला गया है जो दोपहर दो बजे लंच के लिए लौटेगा. पतिदेव कम्प्यूटर पर अपना कुछ काम करके आराम रहे हैं मेरी भी इस समय तक की डायरी एंट्री हो चुकी है. आज हमने वस्त्र आदि धोये हैं, कहीं दूर नहीं जाना है शाम को यहीं लेह के बाजार तक जायेंगे. बाहर तेज धूप है सोचती हूँ कुछ देर आराम कर लूँ.
पैंगोंग झील 

३ जुलाई
अभी कुछ देर पूर्व हमने खिड़की के बाहर ऊंचे पहाड़ों पर पड़ रही धूप के नजारे देखते हुए सुबह की चाय का आनंद लिया. ठंड बिलकुल गायब हो चुकी है, जो एक घंटा पूर्व सुबह की लगभग चार किमी की सैर के दौरान महसूस हो रही थी. जाते समय चढ़ाई है कुछ प्रयास करना पड़ता है पर वापसी में सहजता से दूरी तय हो जाती है. यहाँ काफी स्वच्छता है तथा सडकें भी काफी अच्छी हालत में हैं.  आज तो लौटते समय गोएयर के जहाज की लैंडिंग की वीडियो फिल्म बनाई. हम हवाई अड्डे के थोड़ा पीछे ही रह रहे हैं. लगभग सारी फ्लाइट्स सुबह के वक्त ही आती हैं, क्योंकि धूप तेज होते ही यहाँ तेज हवा चलने लगती है. आज हमें पेंगौंग झील देखने जाना है, जो एशिया की सबसे बड़ी साल्ट वाटर की शांत झील है जो इतनी ऊंचाई पर स्थित है. १४००० फीट की ऊंचाई पर स्थित इस झील का दो तिहाई भाग तिब्बत में है. रात को हम वहीं रहने वाले हैं, कल शाम तक वापस लौटेंगे. टीवी पर जो समाचार आ रहे हैं, एक नई उम्मीद जगा रहे हैं. डिजिटल इंडिया के बाद स्किल इंडिया का अभियान भी सरकार द्वारा चलाया गया है. लद्दाख की हमारी अब तक की यात्रा सुचारू रूप से चल रही है. यहाँ के रास्ते भी उतने ही सीधे-सरल हैं जैसे यहाँ के लोग, कहीं भटकने की गुंजाइश नहीं है. कल रात्रि भी कुछ स्वप्न देखे जो भीतर मन की गहराई में चल रही उथल-पुथल को बाहर निकलने में सक्षम रहे. परसों रात भी स्वप्न देखा था और एक पुरानी समस्या का समाधान पाया. कल यात्रा में हुए अनुभव को फिर से महसूस किया. नींद गहरी नहीं आती यहाँ, कल दिन में भी सो गयी थी जो हवाई अड्डे पर दिए गये निर्देशों के अनूरूप नहीं था.
चांगला 

४ जुलाई
कल सुबह नौ बजे हम झील के लिए रवाना हुए. कारू होते हुए चांगला पहुंचे जो १७६८८ फीट की ऊंचाई पर है. बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ भव्य लग रही थीं. मार्ग में याक, जंगली घोड़े, खच्चर तथा फे नामके जंगली पीले बड़े आकार के चूहे दिखे. हमने हर जगह रुककर कुछ तस्वीरें लीं और आगे की यात्रा आरम्भ की. 

मार्ग में एक गाँव जिसका नाम सक्ति है साथ-साथ चल रहा था. हरे-भरे सरसों व जौ के खेत तथा सीधे पंक्ति बद्ध खड़े वृक्ष. पर्वतों के मध्य से जब पहली बार झील के दर्शन हुए तो हम मंत्रमुग्ध से देखते रह गये. पथरीले पर्वतों पर बनी सड़क पर बढ़ते हुए हम झील के निकट पहुंचे. आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट’ के नाम पर एक रेस्तरां भी वहाँ था. दोरजी हमें उस स्थान पर ले गया जहाँ फिल्म की शूटिंग की गयी थी. 
सक्ति गाँव 

झील का नीला और हरा जल मीलों तक फैला हुआ था, एक तरफ पर्वत थे और दूसरी ओर यात्रियों के लिए कैंप व तम्बू लगाये गये थे. कई श्वेत व सलेटी पंखों वाले पक्षी जिनकी चोंच व पंजे लाल थे, पानी में किलोल कर रहे थे. धूप तेज थी पर हवा भी तेज थी. हमें ऊंचाई पर होने वाली समस्या का अनुभव होने लगा था. हमने भी रात्रि निवास के लिए एक कैम्प में डेरा डाल लिया. कुछ देर वहाँ विश्राम के बाद हम साढ़े छह बजे पुनः झील पर गये. धूप अब दूर पर्वतों के शिखरों पर खिसक गयी थी, ठंड उसी अनुपात में बढ़ गयी थी. मफलर, स्कार्फ. दस्ताने आदि पहनकर हमने संध्या का आनंद लिया. एक व्यक्ति पानी में पैर डाले हुए चिल्ला रहा था, ठंड के कारण उसकी जान निकल रही थी पर फोटो खिंचाने के लिये शायद पानी में उतर गया था. रात्रि भोजन के बाद आकाश में दिख रहे पूर्ण चन्द्रमा को तथा झील के जल में नृत्य कर रही उसकी चन्द्रिका को देखकर कैम्प के बाहर से ही उसकी तस्वीरें उतारीं. ऊपर आकाश में चमकते हुए सैंकड़ों तारे इतने निकट प्रतीत हो रहे थे जैसे उन्हें छुआ जा सकता है.

झील पर जलचर 

सुबह साढ़े पांच बजे थे जब हम टेंट से निकले, सूरज काफी ऊँचा चढ़ आया था. पानी में उसकी सफेद रौशनी पड़ रही थी. कई तस्वीरें लीं. रात को एक बजे सिर दर्द की कारण नींद खुल गयी थी, समझ में आया इसीलिए ज्यादातर लोग रात्रि को झील पर रुकते नहीं हैं. नहाने के लिए गर्म पानी दिया जो यहाँ भी सोलर पॉवर से गर्म किया गया था. स्नानघर का फर्श कच्चा था, कोई फ्लोरिंग नहीं डाली गयी थी और ठंड भी बहुत थी सो हाथ-मुंह धोकर ही हम तैयार हो गये.  नाश्ते में पोहा तथा नमक व अजवायन के तिकोनाकर सादे परांठे (अमूल मक्खन व जैम के साथ) और चाय लेकर सवा आठ बजे हमने वापसी की यात्रा आरम्भ की. साढ़े बारह बजे हम पेगौंग झील से लौट आये. 

शुक्रवार, जुलाई 17

लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा -४

लद्दाखधरा पर चाँद-धरा 

२ जुलाई
कल शाम चाय पीकर हम ऊंट सफारी के लिए तैयार हुए. कुछ ही दूरी पर वह स्थान था. रेतीले मैदान जो मार्ग में दूर से लुभा रहे थे अब निकट से देख पाए. लगभग २५-३० सजे हुए ऊंट थे जिनपर लाल अथवा गहरे रंगों की गद्दियाँ लगी थीं. दूर एक लाल झंडा लगा था जहाँ तक जाकर ऊंट चालक वापस मुड़ते हैं और एक उचित स्थान देखकर तस्वीरें उतारते हैं. हमारे ऊंट चालक ने हर कोण से चार-पांच तस्वीरें लीं जैसे कोई प्रशिक्षित फोटोग्राफर हो. वहाँ से लौटकर हम उस तम्बू में गये जहाँ से संगीत की ध्वनि आ रही थी. विभिन्न पोशाकों में नृत्यांगनाओं ने सहज मुद्राओं में स्वयं गीत गाकर नृत्य दिखाया. अनेक पर्यटकों के साथ हमने भी लद्दाखी लोक नृत्य का आनंद लिया. उनके बोल मधुर थे और समझ में न आने पर भी एक पवित्रता का अनुभव करा रहे थे. उनके हाथों का संचालन ही मुख्य था, शरीर सीधा ही रहता है तथा नृत्य धीमी गति से चलता है. हमने कुछ समय वहाँ बिताया और एक लद्दाखी पोषाक पहन कर तस्वीर भी खिंचाई. 

बाहर निकले तो देखा रेतीले मैदान में एक तरफ भेड़ों-बकरियों का एक रेवड़ हरी-घास व कांटेदार वृक्षों के पत्ते खा रहा था. लगभग दो घंटे वहाँ बिताकर हम लौट आये, कुछ देर के विश्राम के बाद साढ़े सात बजे भोजन कक्ष में पहुंचे. टमाटर सूप और पापड़ से शुरुआत की, भोजन में मुगल नामका एक स्थानीय साग भी था जो वहाँ काम करने वाली महिला ने अपने घर में बिना किसी रासायनिक खाद के बनाया था यानि ऑर्गैनिक. अरहर की घुली हुई दाल, पनीर-मटर, पास्ता तथा फुल्के... इतनी दूरस्थ जगह में इतनी कठिन परिस्थितियों में इतना स्वादिष्ट भोजन मिल सकता है हमें उम्मीद नहीं थी. रात को सोये तो नदी की कलकल धारा जैसे लोरी सुना रही हो. हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गयी थी, जो तम्बू की छत पर गिरती हुई टपटप आवाज से असम की याद ले आई. 


सुबह उठे थे तो जल्दी से जैकेट-टोपी आदि पहनकर बाहर निकले थे, पंछियों की मधुर ध्वनियाँ आकर्षित कर रही थीं. पीले व काले पंखों वाली एक चिड़िया यहाँ बहुतायत से मिलती है जैसे और जगह गौरैया. आकार में उससे कुछ बड़ी है. हमने उसकी कई तस्वीरें लीं, यहाँ मैगपाई नहीं दिखा पर काले रंग का पीली चोंच वाला एक बड़ा पक्षी था. हम उस जल से जो स्फटिक के समान स्वच्छ था,  सीधा ग्लेशियर से आ रहा था और सूर्य की किरणों से गर्म किया गया था, नहाकर ताजगी का अनुभव कर रहे थे. नाश्ता भी उतना ही लाजवाब था, लाल तरबूज, कॉर्न फ्लेक्स, उपमा, पनीर व आलू परांठा तथा छोले, चाय या काफ़ी. 

साढ़े आठ बजे तैयार होकर गाड़ी में बैठ चुके थे पनामिक जाने के लिए, जहाँ गर्म पानी के चश्मे हैं. रस्ते में सूमुर गाँव भी आया जहाँ वापसी में हमें रुकना था. पनामिक का ३५ किमी का रास्ता बहुत मनोरम है. रेतीले बालू भरे तट तथा बड़े-बड़े पत्थर, ऊंचे नंगे पहाड़ तो कभी हरे-भरे खेत. नुब्रा नदी भी साथ-साथ बह रही थी. एक घंटे की यात्रा के बाद हम उस स्थान पर पहुंचे. तीन विभिन्न स्रोतों से पानी निकल रहा था, भाप भी नजर आ रही थी, छूकर देखना चाहा पर तापमान काफी अधिक था, कुछ लोग उसमें पैकेट वाला भोजन भी पका रहे थे. हमें कई जगह गुजराती पर्यटक मिले थे, यहाँ भी उनकी भाषा से ऐसा लगा. दूर घाटी में सरसों के पीले खेत भी नजर आये. किसी बीते समय जब बाहरी दुनिया से लद्दाख का कोई संपर्क नहीं था, यहाँ के निवासी जौ और सरसों से काम चलाते थे, भेड़ों की ऊन से बने वस्त्र स्वयं ही बुनते थे जिन्हें पट्टू कहते हैं. 

पनामिक से लौटकर हम सूमुर गाँव के गोम्पा पहुंचे जहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता. गोम्पा अपेक्षाकृत बाहर से आधुनिक लगता है तथा सेब व खुबानी आदि फलों के कई वृक्ष अहाते में लगे हैं.  हमने कुछ तस्वीरें लीं, फिर मुख्य कक्ष में गये जहाँ भगवान बुद्ध की विशाल मूर्ति थी तथा तारा की दो मूर्तियाँ थीं. मंजुश्री तथा वज्रपाणि की भी एक-एक मूर्ति थी. बौद्ध धर्म के बारे में कुछ जानकारी वहाँ के लामा ने दी जो एक पुस्तक पढ़ रहे थे पर प्रश्न पूछने पर सहजता से जवाब देने लगे. कक्ष से बाहर निकले तो एक वृद्ध लामा आते हुए दिखाई दिए, ‘जूले’ कहने पर मुस्कुरा कर उन्होंने भी जवाब दिया. शेष हर तरफ एक गहन शांति छायी हुई मिली. सूमुर गाँव से हम चले तो सीधे खरदुम गाँव में रुके जहाँ पुनः पहले दिन की तरह चाय मिली. आज यात्री बहुत ज्यादा थे सो चाय में दालचीनी का स्वाद नहीं आया तथा चीनी भी अधिक थी. एक साथ बीसियों लोगों के लिए चाय बनाना कोई आसान काम तो नहीं. लोग मैगी का आर्डर भी दे रहे थे, हर ब्रांड के नूडल्स को मैगी ही कहा जाता है यहाँ. खर्दुन्गला दर्रे तक हम पहुंचे तो दोपहर के दो बजे थे. इस बार  गाड़ी में बैठ-बैठे ही हमने कुछ तस्वीरें लीं तथा वापसी की यात्रा का आरम्भ किया. 

नदियाँ, पहाड़, हिमपात  तथा वर्षा के दृश्य समेटे वापस पौने चार बजे लेह लौटे. खर्दुन्गला से पहले ही हिमपात शुरु हो गया था. बर्फ के सूक्ष्म कण कार की जरा सी खुली खिड़की के शीशे से भी अंदर आ रहे थे. कितने ही मोटरसाइकिल चालक दिखे जो इसी खराब मौसम में फिसलन भरी सड़क पर अपनी जान को जोखिम में डाल रहे थे. उनको देखकर उनकी बहादुरी पर रश्क भी होता था और करुणा भी. भगवान बुध के इस पावन स्थल पर सभी एक-दूसरे के लिए सद्भावना से भरे नजर आए. यहाँ कोई ऊंची आवाज में बात करता नजर नहीं आया, लोग विनम्र हैं, तथा धर्म उनके लिए जीवन का अभिन्न अंग है, धर्म तथा जीवन दो अलग-अलग बातें नहीं हैं. 

गुरुवार, जुलाई 16

लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा भाग -३

लद्दाखधरा पर चाँद-धरा 

३० जून
सुबह उठकर प्रातः भ्रमण को गये. आकाश पर बादल थे. कुछ जवान समूह में जा रहे थे. कुछ लोग जॉगिंग कर रहे थे. वापस आकर च्यवन प्राश तथा भुने हुए बादाम खाकर चाय का लुत्फ़ लिया. आज हम नुब्रा वैली जा रहे हैं जो यहाँ से एक सौ तीस किमी दूर है. रात्रि में वहीं रहेंगे तथा कल शाम तक वापस लौटेंगे.
१ जुलाई

बहते हुए पानी का कल-कल शोर, रंग-बिरंगी चिड़ियों का मधुर कलरव तथा धारा के दोनों तरफ उगे घने वृक्षों की कतार एक अनुपम दृश्य का संयोजन कर रहे हैं. परमात्मा की बनाई इस सुंदर सृष्टि का आनंद लेने के लिए हम घर से इतनी दूर यात्रा करके आये हैं, कूर्ग की याद दिला रहा है यहाँ का वातावरण ! कल सुबह दही व अजवायन के परांठों का नाश्ता करके हम नौ बजे यात्रा पर निकले. इस बार हमारे ड्राइवर थे टी दोरजी जो हाल ही में सेना से रिटायर्ड हुए हैं, शांत स्वभाव के इस बौद्ध के मन में दलाई लामा के प्रति विशेष आदर है. मार्ग में जहाँ वे आये थे, उन स्थानों को दिखाया, किस तरह लोगों ने उनका स्वागत किया इसका विवरण बताया. दलाई लामा ने लद्दाख वासियों को शाकाहारी रहने का उपदेश दिया है. इतनी ठंड होने के बावजूद यहाँ अस्सी प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं. ज्यादातर लोगों के चेहरे एक सरल मुस्कान से खिले रहते हैं. यह रिजॉर्ट ‘रॉयल कैम्प’ भी पूर्णतया शाकाहारी व्यंजन परोसता है, प्याज लहसुन के बिना भी, क्योंकि कई जैन लोग भी यहाँ आते हैं.  लेह से चलते समय जो पहला शांति स्तूप आया उसका एक चक्कर लगाकर ड्राइवर आगे बढ़ा. शहर से बाहर निकलते ही दोनों ओर विशाल पर्वत मालाएं आरम्भ हो गयीं. सलेटी, ग्रे, भूरे कहीं काले पर्वत और उनके पार बर्फ से ढकी चोटियाँ ! किस दृश्य को कैद करें यह सोचते ही अगला दृश्य आ जाता जो उससे भी बेहतर होता. कहीं-कहीं हरियाली भी थी, कहीं कोई छोटी जलधारा, बीच–बीच में कोई गाँव जिसमें जौ तथा सरसों की खेती भी की हुई थी. 

जैसे-जैसे ऊंचाई बढती गयी चट्टानों और पहाड़ों पर जो बर्फ दूर से दिखाई देती थी पास से नजर आने लगी. एक जगह भेड़ों व बकरियों का एक बड़ा रेवड़ सडक पार करता हुआ दिखा. अब सडक पर बर्फ का कीचड़ नजर आने लगा. लगभग तीस किमी की लम्बाई तक सड़क खराब थी, रास्ते में कई जगह मजदूर काम कर रहे थे. ड्राइवर ने बताया उनमें से कई बिहारी थे. अब हम ‘खर्दुन्गला दर्रे’ के नजदीक पहुंचते जा रहे थे. चारों तरफ श्वेत हिम से आच्छादित पर्वत मालाएं ! जिन्हें पहले हम हवाई जहाज से देखकर ही आनंदित होते थे, उनके निकट से गुजरना और उन्हें छूना एक अविस्मरणय अनुभव था. १८३२५ फीट की ऊंचाई पर स्थित यह विश्व की सर्वाधिक ऊंची मोटरेबल रोड है. सभी गाड़ियाँ वहाँ रुक गयीं और प्रफ्फुलित यात्रीगण उतर कर हिमाच्छादित पर्वतों के साथ तस्वीरें उतारने लगे. मैं भी निकट के एक पर्वत पर चढ़ गयी और लगभग पांच मिनट ही वहाँ रुकी पर जब नीचे उतर कर आई तो जैसे दिल बैठने लगा, कार तक पहुंचते-पहुंचते तो होश उड़ने लगे. ड्राइवर कार पार्क करके चला गया था पतिदेव ने उसे बुलाया और जितनी जल्दी हो सका उस ऊंचाई से हम नीचे उतरने लगे, सारे लक्षण जितनी तीव्रता से आये थे वैसे ही मिटने लगे और जल्द ही स्थिति सामान्य हो गयी. कई जगह पढ़ा था कि दस-पन्द्रह मिनट से ज्यादा चोटी पर ठहरना खतरनाक हो सकता है.

 वापसी में एक जगह रुककर पुनः हिम की तस्वीरें लीं. नुब्रा वैली पहुंचने से पूर्व एक गाँव खरदुम में चाय पी, छोटे से रेस्त्रां में लोगों का तांता लगा हुआ था, भोजन भी मिल रहा था और चाय, मैगी, कोल्ड ड्रिंक्स भी. ड्राइवर वहाँ का परिचित था उसने वहीं भोजन करने को कहा पर हमें गंतव्य पर पहुंचने की शीघ्रता थी, सो उसने खाना खाया और हम आगे बढ़े. कलसार नामक स्थान पर पहुंचे तो ट्रैफिक रुका हुआ था, पता चला सड़क पर कोलतार बिछाने का काम चल रहा है. दूसरी तरफ भी गाड़ियों का काफिला इकट्ठा हो गया था. आधा घंटा हम आराम से बैठे रहे फिर जैसे-जैसे समय बीतने लगा भूख सताने लगी. एक घंटा हो गया तो यही उचित समझा, उतर कर कोई ढाबा खोजें, आगे गये तो कितने ही यात्री वहाँ स्थित होटलों, ढाबों में बैठे थे. एक पंजाबी ढाबे में पंजाबी लडकी ने हमें चावल पर चने-उड़द की दाल जिसमें राजमा भी दिख रहे थे, परोसे तथा साथ में सूखी मिश्रित सब्जी. तब तक ट्रैफिक भी खुल गया था और यात्रा पुनः आरम्भ हो गयी. दिस्कित गाँव में पहुंचे तो दूर से ही एक सुंदर बुद्ध प्रतिमा के दर्शन होने लगे थे जो एक पहाड़ी पर बने मन्दिर के ऊपर बनी थी. चमकदार रंगों से सजी प्रतिमा को देखते ही एक अद्भुत शांति का अनुभव हो रहा था. ऊपर पहुंचे ही थे कि वर्षा होने लगी सो जल्दी ही नीचे उतरकर मन्दिर के भीतर गये जहाँ भगवान बुद्ध, मंजुश्री, तथा तारा देवी कि मूर्तियाँ थीं. दलाई लामा का एक चित्र भी था, पता चला एक बार दलाई लामा वहाँ आकर ठहरे थे. 

आगे की यात्रा का दृश्य अत्यंत मनोरम था, एक ओर ऊंचे पर्वत दूसरी और श्योक नदी का साफ जल तथा हरियाली भी नजर आने लगी थी. जौ की खेती की हुई थी और कहीं-कहीं घाटियों में काली गायें नजर आ रही थीं. हुन्दर गाँव में हमें रुकना था जो रेतीले मैदानों तथा दो कूबड़ वाले ऊंटों के लिए जाना जाता है. दोरजी हमें ‘रॉयल कैम्प’ में ले गया, जहाँ का वातावरण हमें इतना भाया कि अन्य गेस्ट हाउस या कैम्प देखने कि जरूरत महसूस नहीं हुई. गर्मजोशी से हमारा स्वागत हुआ, अरुण नामका केयरटेकर जो दार्जलिंग का रहने वाला था, उसने कैम्प दिखाया, अच्छा लगा. बाहर से श्वेत तथा भीतर से पीले रंग का, फ्लैप वाली चार खिड़कियाँ, एक द्वार जो चेन से बंद होता था, तथा सटा हुआ स्नानघर. सोलर पैनल लगे थे उन्हीं से बिजली भी बनती है तथा सुबह के समय गर्म पानी भी आता है.