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सोमवार, अगस्त 14

कान्हा तेरे नाम हजारों

कान्हा तेरे नाम हजारों

जब नभ पर बादल छाये हों
वन से लौट रही गाएँ हों,
दूर कहीं वंशी बजती हो
 पग में पायलिया सजती हो !

मोर नाचते कुंजों में हों
खिले कदम्ब निकुंजों में हों,
वह चितचोर हमारे उर को,
कहीं चुराए ले जाता है !

कान्हा याद बहुत आता है !

भादों की जब झड़ी लगी थी
अंधियारी अष्टमी आयी,
लीलाधर ! वह आया जग में
पावन वसुंधरा मुस्कायी !

कितनी हर्षित हुई देवकी,
सुसफल तपस्या वसुदेव की,
टूटे बंधन जब प्रकट हुआ
मिटा अँधेरा जग गाता है !

कृष्ण सभी के मन भाता है !

यमुना की लहरें चढ़ आयीं
मथुरा छोड़ चले जब कान्हा,
लिया आश्रय योगमाया का
नन्दगाँव गोकुल निज माना !

नन्द, यशोदा, दाऊ, दामा
बने साक्षी लीलाओं के,
माखन चोरी, ऊखल बंधन
दुष्ट दमन प्रिय हर गाथा है !

जन-जन नित्य जिन्हें गाता है !

मधुरातिमधुरम वेणु वादन
 ग्वाल-गोपियाँ मुग्ध हुईं सुन,
नृत्य अनूप त्रिभंगी मुद्रा
  राधा संग बजी वंशी धुन !

चेतन जड़, जड़ चेतन होते
गोकुल, ब्रज, वृन्दावन पावन,
युग बीते तेरी लीला से
नित नवीन रस जग पाता है !

कृष्णा नव रस भर जाता है !

कान्हा तेरे नाम हजारों,
मधुर भाव हर नाम जगाए,
कानों में घोले मिश्री रस
माखन सा अंतर पिघलाए !

तेरी बातें कहते सुनते
तेरी लीला गाते सुनते
न जाने कब समय का पंछी,
पंख लगाये उड़ जाता है !

अंतर मन को हर्षाता है !


गुरुवार, जून 18

वही एक है

वही एक है



एक मधुर धुन वंशी की ज्यों
एक लहर अठखेली करती,
एक पवन वासन्ती बहकी
एक किरण कलियों संग हँसती !

एक अश्रु चरणों पर पावन
एक दृष्टि हर ले जो पीड़ा,
 एक परस पारस का जैसे
एक शिशु करता हो क्रीड़ा !

एक परम विश्राम अनूठा
एक दृश्य अभिराम सजा हो,
एक स्वप्न युगों तक चलता  
एक महावर लाल रचा हो !

एक मन्त्र गूँजे अविराम
एक गीत लहरों ने गाया,
एक निशा सोयी सागर पर
एक उषा की स्वर्णिम काया !

शुक्रवार, मार्च 16

है बेबूझ बात यह दिल की


है बेबूझ बात यह दिल की

मदिर चाँदनी बिखरी जैसे
गुनगुन कोई गीत सुनाता,
तेरी यादों में मन खोया
काल का पंछी भी थम जाता !

लहरें उठतीं गिरतीं जैसे
बहे ऊर्जा का इक दरिया,
भाव मधुर वंशी बन गूंजे
मन चादर में पड़े लहरिया !

थिर कदमों में नृत्य समाये
मूक हुआ कोई हँसता जाये,
तृषित अधर मन इक प्याला हो
एक हाथ कोई ताल बजाए !

है बेबूझ बात यह दिल की
एक अनोखी सी महफिल की,
आँखों आँखों में ही घटती
तय होती दूरी मंजिल की !

शनिवार, जुलाई 9

खोया खोया सा मन रहता

खोया खोया सा मन रहता

जब कोई हौले से आकर
कानों में वंशी धुन छेड़े,
माली दे ज्यों जल पादप को 
जब कोई अंतर को सींचे !

जब तारीफों के पुल बांधें  
नजरों में जिनकी न आये,
जब सफलता घर की चेरी
पांव जमीं पर न पड़ पाएँ !

जब सब कुछ बस में लगता हो
गाड़ी ज्यों पटरी पर आयी,
रब से कोई नहीं शिकायत
दिल में राहत बसने आयी !

फिर भी भीतर कसक बनी सी
अहम् को चोट लगा करती है,
खोया-खोया सा मन रहता
स्मित अधरों पे कहाँ टिकती है !

पीड़ा तन की या फिर मन की
उलझन ही कोई प्रियजन की,
रातों को न नींद आ रही
रौनक चली गयी आंगन की !

 मन सुख की लालसा करता
जग से लेन-देन चलता है,
लेकिन भेद न जाने कोई
असली खेल कहाँ चलता है !
    



शुक्रवार, अक्टूबर 1

रह-रह कर भीतर वंशी धुन

रह-रह कर भीतर वंशी धुन

बिखरा है बन कर उजास
मिलता है तू श्वास-श्वास
कहाँ समेटूँ कहाँ समोऊँ
पूछ रहा मन ले उच्छ्वास !

पलकों में मुस्कान छिपी
अश्रु रस्ता भूल गए हैं
अधरों पर नित गीत सजे
पुष्प प्रीत के झूल गए हैं I

मौसम मस्त हुआ मन भाए
फागुन जीवन से न जाये
थिरके कदम चाल बहकी सी
नाम खुमारी जब चढ़ जाये I

पोर-पोर में गंध उठ रही
कोर-कोर में सुलगे अग्नि
रह-रह कर भीतर वंशी धुन
पंछी स्वर वीणI सुर ध्वनि I

लूट मची है ले लो राम
जग में न कोई दूजा काम
सत्य का दामन थामा जिसने
मिलता उसको ही विश्राम I

सुख सरिता में डूब रहा मन
भीतर उग आये हैं उपवन
कितना सुंदर क्रम जीवन का
नेह पगा है मन का कण कण I

अनिता निहालानी
१ अक्तूबर २०१०