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शनिवार, अगस्त 20

मन के रूप हजार


मन के रूप हजार

मन की झील पर
जम जाता है शब्दों का शैवाल  
या ढक लेती है जल को विचारों की पत्तियां
नजर आती नहीं झील की गहराई
तब अचानक प्रज्ञा की आंधी उडा ले जाती है
पत्तों को एक किनारे या बहा देती है काई 
दूर तक और झलक उठती है
चमचमाती तलहटी !

कभी मन की भूमि पर
उग आते हैं शब्दों के जंगल
इतने घने कि पट जाती है भूमि
शुष्क पत्तों से  
प्रकाश की एक किरण नहीं पहुंच पाती
और छा जाता है सीलन भरा अंधकार
तब कोई ज्ञान की कटार से
काट देता है जंगल
उतर आती है धूप और मन खिल उठता है जीवंत !

मन की बगिया में कभी उग आते हैं
शब्दों के खरपतवार या कंटक अनचाहे
नष्ट हो जाती है समता की खेती
विचरते जहां उलझ कर फट जाते हैं
आत्मा के वस्त्र, विवेक रूपी माली आकर
उखाड़ फेंकता है खर पतवार और जला देता है कंटक
पनपते हैं पुष्प शांति, प्रेम और आनंद के...



  

सोमवार, मई 30

इस वर्ष


यह तो होना ही था....

तेज उमस भरी गर्मी  
बरसा नहीं था बादल कुछ दिनों से
पर आज सुबह
रिमझिम ने जगाया नींद से
सहला गयी शीतल पवन
दे गयी कोई संदेशा
बेला, मालती की सुवास
अजाने लोक का
कोई कह गया कान में चले आओ
मंदिर की बढ़ गए कदम
 खुदबखुद अल सुबह  
खुलने लगे कपाट जिसके
और... झरने लगी प्रार्थनाएं
किसी गहरे मानस से
प्रार्थनाएँ... जो खुद के लिये नहीं थीं
सर्वे भवन्तु सुखिनः....
अचानक मधुर हो गया पोर-पोर
यह क्या हो रहा था
शुभकामनाएँ दे रहे थे पंछी और
पहचान के वे लोग भी
जिनसे उम्मीद नहीं थी...
अपने आप हाथ उठ गए
सेवइयों की ओर
और तैयार हो गयी मीठी खीर...
दनादन कोई बदलवा गया
सारे कुशन कवर... मेजपोश...
जाने कौन पाहुना आ जाये
यह सब हुआ
 अभी तो दिन का पहला पहर है
आगे-आगे देखिये होता है क्या....
क्योंकि मैंने इस वर्ष  
हवा की छुवन.. और जग की सौगातों को
ईश्वर का उपहार माना है
प्यार, हँसी और हर शुभ को त्योहार माना है...
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि
आज मेरा....

अनिता निहलानी
३० मई २०११    






सोमवार, मई 23

तू आनंद प्रेम का सागर



तू आनंद प्रेम का सागर

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कौन से सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल-खिल जायेंगे उपवन भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन अंतरे को गाले !

अनिता निहालानी
२३ मई २०११     

बुधवार, मई 18

पिता


पिता

पुराने वक्तों के हैं पिता
उन वक्तों के
जब हवा में घुल गयी थी दहशत
खिलखिलाहटें, फुसफुसाहटों में
और शोर सन्नाटे में बदल रहा था
पाक पट्टन के स्कूलों में

बंटवारे की चर्चा जो पहले उड़ती थी
चाय की चुस्कियों के साथ
अब हकीकत नजर आने लगी थी
तब किशोर थे पिता
नफरत की आग घरों तक पहुँच चुकी थी
पलक झपकते ही आपसी सौहार्द का पुल
विघटन की खाई में बदल गया था

पुश्तों से साथ रहते आये गाँव तथा परिवार
ढह गए थे ऐसे जैसे कोई दरख्त जड़ों सहित
उखाड़ दिया गया हो
जलते हुए मकान, संगीनों की नोक पर
टंगे बच्चे, बेपर्दा की जा रहीं औरतें

रातोंरात भागना पड़ा था  उन्हें
औरतों व बच्चों को मध्य में कर
घेर कर चारों ओर से वृद्ध, जवान पुरुष
बढ़ते गए मीलों की यात्रा कर
कारवां बड़ा होता गया जब जुटते गए गाँव के गाँव..

....और फिर दिखायी पड़ी भारत की सीमा
जो था अपना पराया हो गया देखते-देखते
खून की गंध थी हवा में यहाँ भी
दिलों में खौफ, पर जीवन अपनी कीमत मांग रहा था
पेट में भूख तब भी लगती थी
...कहते-कहते लौट जाते हैं (अब वृद्ध हो चले पिता)    
पुराने वक्तों में... कि सड़कों के किनारे मूंगफली
बेचते रहे, गर्म पुराने कपड़ों की लगाई दुकान
और कम्पाउडरी भी की
फिर पा गए जब तहसील में एक छोटी सी नौकरी
हाईस्कूल की परीक्षा के लिये
सड़क के लैम्प के नीचे की पढ़ाई
पुरानी मांगी हुई किताबों से
और बताते हुए बढ़ जाती है आँखों की चमक
पास हुए प्रथम श्रेणी में
भारत सरकार के डाकविभाग में बने बाबू
और सीढ़ियां दर सीढ़ियां चढ़ते
जब सेवानिवृत्त हुए तो सक्षम थे
एक आरामदेह बुढ़ापे की गुजरबसर में
पर रह रह कर कलेजे में कोई टीस उभर आती है
जब याद आ जाती है कोई बीमार बच्ची
जिसे छोड़ आये थे रास्ते में उसके मातापिता
एक बूढी औरत जो दम तोड़ गयी थी पानी के बिना
दिल में कैद हैं आज भी वह चीखोपुकार
वह बेबसी भरे हालात
आदमी की बेवकूफी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी
पिता ऊपर से संतुष्ट नजर आते हैं
पर भीतर सवाल अब भी खड़े हैं !


अनिता निहालानी
१८ मई २०११     

सोमवार, मई 16

सब संगीत बहा जाता है


सब संगीत बहा जाता है

स्रोत शांति का यदि भीतर है 
सारा जग अपना लगता है,
जो है जिसके पास, जगत !
वह, वही तुम्हें दे सकता है I

भीतर यदि मुस्कान भरी है
हँस सकता है संग सहर के,
फूलों के सँग बढा दोस्ती
चिड़ियों के सँग गा सकता है !

सभी सुखी हों और स्वस्थ भी
आनन्दित हो जाएँ सब ही,
सहज लुटाता ममता सारी
सेवा भाव जगा करता है !

लेकिन भीतर हो सन्नाटा
कुछ भी नजर कहाँ आता है,
जीवन की आपाधापी में
सब संगीत बहा जाता है !

तन पीड़ित हो, इंद्रधनुष भी
मन को भला नहीं लगता,
मन आकुल हो चाँद पूर्णिमा
का भी सुख न दे पाता है !

लोभ भरा हो अंतर में तो
दुखी नजर कहाँ आते हैं,
भूखे-प्यासे बच्चे भी तब  
नजर अंदाज किये जाते हैं !

भरी तिजोरी रहे सलामत
दुआ यही निकलती दिल से,
अपनों से भी खींचातानी
दान कहाँ दिया जाता है !

चुक गयी संवेदनायें जिसकी
 वह दिल कब खिल पाता है,
जीवन की आपाधापी में
सब संगीत बहा जाता है !

 अनिता निहालानी
१६ मई २०११


शनिवार, मई 7

बस इतना सा ही सरमाया


बस इतना सा ही सरमाया


गीत अनकहे, उश्ना उर की
बस इतना सा ही सरमाया !

कांधे पर जीवन हल रखकर
धरती पर फिर कदम बढाये
कुछ शब्दों के बीज गिराए
उपवन गीतों से महकाए !

प्रीत अदेखी, याद उसी की
बस इतना सा ही सरमाया !

कदमों से धरती जब नापी
अंतरिक्ष में जा पहुँचा मन
कुछ तारों के हार पिरोये
डोले चन्द्रमाओं सँग-सँग !

कभी स्मृति, कभी कल्पना
बस इतना सा ही सरमाया !


अनिता निहालानी
७ मई २०११

मंगलवार, मई 3

आज खिले कल मुरझाएंगे



आज खिले कल मुरझाएंगे

पल-पल हाँ से नहीं हो रहे
छिन-छिन हम तुम शेष हो रहे,
चुक जाना है नियति अपनी
थम जायेगी गति जीवन की !

काल सिंधु में बहे जा रहे
तिल-तिल घटना सहे जा रहे,
आज खिले कल मुरझाएंगे
गंध पवन को दे जायेंगे !

इक-इक कर वह चुने जा रहे
मृत्यु माल में गुंथे जा रहे,
स्वप्न सरीखा था जो बीता
कितना भरा रहा मन रीता !

रीते मन के साथ जी रहे
नश्वरता के घूंट पी रहे,
पल-पल हाँ से नहीं हो रहे
छिन-छिन हम तुम शेष हो रहे !

अनिता निहालानी
३ मई २०११    

गुरुवार, अप्रैल 28

नीड़ बनाना चाहे चिड़िया

नीड़ बनाना चाहे चिड़िया

जाने बनी है किस माटी की
बड़ी हठीली, जिद की पक्की,
नन्हीं जान बड़ी फुर्तीली
लगती है थोड़ी सी झक्की !

सूखे पत्ते, घास के तिनके
सूखी लकड़ी, कपड़े लत्ते
चोंच में भर-भर लाती चिड़िया
नीड़ बनाना चाहे चिड़िया !

बाहर पूरी कायनात है
चाहे जहाँ बनाये घर वो  
न जाने क्यों घर के भीतर
बसना उसको भाए अब तो !

पूजा वाली शेल्फ पे बैठी
कभी ठिकाना अलमारी पर
इधर भगाया उधर आ गयी
विरोध जताती चीं चीं कर !  

हार गए सभी किये उपाय
तोड़ दिया घर कितनी बार
लेकिन उसका धैर्य अनोखा
फिर-फिर लाती तिनके चार !

बंद हुआ जो एक मार्ग तो
झट दूजा उसने खोज लिया
खिडकी की जाली से आयी 
कैसे निज तन को दुबलाया !

शायद उसको जल्दी भी हो
अब नयी जगह ढूंढे कैसे
अप्रैल आधा बीत गया है
घर बस जाये जैसे तैसे !

अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११