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मंगलवार, अगस्त 23

मुक्ति का गीत


मुक्ति का गीत


मुक्त हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !


मुक्त हूँ हर बात से उस 

हर घड़ी जो टोकती थी,

याद कोई जो बसी थी 

भय बताकर टोकती थी !


मुक्त हूँ नित भीत से भी 

तर्क के उन सीखचों से, 

तोड़ दी दीवार हर वह 

बोझ जिनका था सताता !


मुक्त हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !


नील अम्बर सामने था

किंतु दिल यह उड़ न पाता,

 बांध ली थीं साँकलें कुछ  

क़ैद मन को कर लिया था !


मुक्त हूँ हर बात से उस 

हृदय को खिलने न देती 

सहज अपनापन जगाकर 

जो कभी मिलने न देती 


मुक्त  हूँ ! इस पल ! यहाँ पर !

बुधवार, दिसंबर 9

मन और मौन

मन और मौन
शब्दों की गलियों में गोल घूमता है
मन का मयूर यह व्यर्थ ही झूमता है
 
अनंता-अनंत जो चहुँ ओर व्याप्त रहा
नाप लिया हो जैसे ‘अम्बर’ नाम दिया
 
‘मन’ भी आकाश सा कोई न माप सका
स्वयं सीमित होकर शब्द आकार लिया
 
शब्द अभी पीड़ा दें पल में सहला दें
स्वयं ही रचे मन शब्दों से बहला दे
 
नाम-रूप भरम में नाम ही बंधन है
मौन आश्रय जिसे पार ही चिरंतन है  

सोमवार, सितंबर 21

नीला अम्बर सदा वहीं था

 नीला अम्बर सदा वहीं था

संशय, भ्रम, भय, दुःख के बादल  

जग को हमने जैसा देखा, 

छिपा लिया था दृष्टि पथ ही 

मन पर पड़ी हुई थी रेखा !


कैसे दिखे विमल नभ अम्बर

आशाओं की ओट पड़ी हो,

कैसे कल-कल निर्मल सरिता 

भेदभाव की भीत गड़ी हो !


दुराग्रहों के मोटे पर्दे 

नयनों को करते हों धूमिल,

नीला अम्बर सदा वहीं था 

जहां छँटे ये काले बादल !


स्रोत खुले जो बंद पड़े थे 

जहाँ गिरी मन से हर बाधा,

बहते हुए प्रीत के दरिया

श्यामल जीवन में थी राधा !


अपनेपन की फसल उगी थी   

दृष्टि मिली यह राज बहा झर, 

जाना, आकर जाने कितने 

बन्द पड़े हैं मन के भीतर !


सोमवार, मई 27

फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा



फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा


नव बसंत का स्वागत करने
जग को अपनेपन से भरने
उस अनंत के रंग समेटे
हर दर बन्दनवार सजाना होगा !

सृष्टि सुनाती मौन गीत जो
कण-कण में छुपा संगीत जो
आशा के स्वर मिला सहज ही
प्रतिपल नूतन राग सुनाना होगा !

अम्बर से रस धार बह रही
भीगी वसुधा वार सह रही
श्रम का स्वेद बहाकर हमको
नव अंकुर हर बार खिलाना होगा !

टूटे मत विश्वास सदय का
मुरझाये न स्वप्न हृदय का
गहराई में सभी जुड़े हैं
भाव यही हर बार जताना होगा !

शुक्रवार, मार्च 22

झर-झर झरता वह उजास सा


झर-झर झरता वह उजास सा 

कोई पल-पल भेज सँदेसे 
देता आमन्त्रण घर आओ
कब तक यहाँ वहाँ भटकोगे 
मस्त हो रहो, झूमो, गाओ !

कभी लुभाता सुना रागिनी 
कभी ज्योति की पाती भेजे
पुलक किरण बन अनजानी सी 
कण-कण मन का परस सहेजे !

कभी मौन हो गहन शून्य सा 
विस्तृत हो फैले अम्बर सा
वह अनन्ता अनंत  हृदय को 
हर लेता सुंदर मंजर सा ! 

स्मरण चाशनी घुलती जाये  
भीग उठे उर अंतर सारा
पोर-पोर में हुआ प्रकम्पन 
देखो, किसी ने पुनः पुकारा ! 

झर-झर झरता वह उजास सा 
बरसे हिमकण के फाहों सा,
बहता बन कर गंगधार फिर 
महके चन्दन की राहों सा ! 

कोई अपना आस लगाये 
आतुर है हम कब घर जाएँ
तज के रोना और सिसकना 
सँग हो उसके बस मुस्काएं !  

बुधवार, फ़रवरी 13

तू महासूर्य मैं एक किरण




तू महासूर्य मैं एक किरण


तू महासूर्य मैं एक किरण
तू सिंधु अतल हूँ लहर एक,
मैं भ्रमर बना डोला करता
शुभ खिला हुआ तू कमल एक !

मैं श्वेत श्याम घन अम्बर का
तू विस्तारित नील आकाश,
मैं गगन तारिका जुगनू सम 
तू ज्योतिर्मया महा प्रकाश !

तू महा आरण्य चन्दनवट
मैं कोमल डाली इक वट की,
तू ज्वाला का इक महाकुंड
मैं लघु काया इक चिंगारी !

तू अन्तरिक्ष है अंतहीन
छोटा सा ग्रह मैं घूम रहा,
तू महाप्रलय सा दीर्घ पवन
मैं मंद समीरण बन बहता !

सोमवार, जुलाई 23

पावन प्रीत पुलक सावन की



पावन प्रीत पुलक सावन की

कितने ही अहसास अनोखे
कितने बिसरे ख्वाब छिपे हैं,
खोल दराजें मन की देखें
अनगिन जहाँ सबाब छिपे हैं !

ऊपर-ऊपर उथला है जल
कदम-कदम पर फिसलन भी है,
नहीं मिला करते हैं मोती
इन परतों में दलदल भी है !

थोड़ा सा खंगालें उर को
जाल बिछाएं भीतर जाकर,
चलें खोजने सीप सुनहरे
नाव उतारें बचपन पाकर !

पावन प्रीत पुलक सावन की
या फिर कोई दीप जला हो,
गहराई में उगता जीवन
नीरव वन में पुहुप खिला हो !

अम्बर से जो नीर बरसता
गहरे जाकर ही उठता है,
कल का सूरज जो लायेगा
वही उजास आज झरता है !  




रविवार, दिसंबर 4

अकेलापन और एकांत

अकेलापन



उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक
धरा के इस छोर से उस छोर तक
कोई दस्तक सुनाई नहीं देती

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा
अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन रुदन
और चन्द्रमा का अकेलापन

क्यों हैं ?.....यह दूरियाँ
यह अलगाव यह अकेलापन
जो चुभता है दंश सा !

एकांत 

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक 
धरा के इस छोर से उस छोर तक 
एक ही का पसारा है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा
अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन सृजन 
और चन्द्रमा का एकांत 

अद्भुत हैं यह दूरियाँ
यह विस्तार यह एकांत 
जो मिलता है मीत सा !

गुरुवार, दिसंबर 17

राहों में जो फूल मिलेंगे

राहों में जो फूल मिलेंगे


मंजिल कितनी दूर भले हो
कदमों को न थकने देना,
राहों में जो फूल मिलेंगे
उर सुरभि से भरने देना !

पत्थर भी साथी बन सकते
चलना जिसको आ जाता है,
भूलों से ही उपजी पीड़ा
दुःख भी पाठ पढ़ा जाता है !

अंतर में जब प्रीत जगी हो
उपवन बन जाता संसार,
नहीं विरोध किसी से रहता
सहज बिखरता जाता प्यार !

श्रम के कितने सीकर बहते
नित नूतन यहाँ सृजन घटे,
साध न पूरी होगी जब तक
तिल भर भी न तमस घटे !

उर आंगन में रचें स्वर्ग जब
उसका ही प्रतिफलन हो बाहर,
भीतर घटे पूर्णिमा पहले
चाँद उगेगा नीले अम्बर !



सोमवार, जुलाई 27

जीवन बंटता ही जाता है



जीवन बंटता ही जाता है


बाँट रहा दिन-रात हर घड़ी
खोल दिए अकूत भंडार,
 युगों-युगों से जग पाता है
डिगता न उसका आधार !

शस्य श्यामला धरा विहंसती
जब मोती बिखराए अम्बर,
पवन पोटली भरे डोलती
केसर, कंचन महकाए भर !

जा सिन्धु में खो जाती हैं
जल राशियाँ भर आंचल में,
नीर के संग-संग नेह बांटती
तट हो जाते सरस हरे से !

जीवन बंटता ही जाता है
मानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !

बुधवार, जून 3

नई नकोर कविता


नई नकोर कविता

बरसती नभ से महीन झींसी
छू जाती पल्लवों को आहिस्ता से
ढके जिसे बादलों की ओढ़नी
झरती जा रही फुहार
उस अमल अम्बर से !
छप छप छपाक खेल रहा पाखी जल में
लहराती हवा में लिली और
रजनीगन्धा की शाखें
गुलाब निहारता है जग को भर-भर आँखें
हरी घास पर रंगोली बनाती
 गुलमोहर की पंखुरियां
भीगे-भीगे से इस मौसम में
खो जाता मन 
संग अपने दूर बहा
ले जाती ज्यों पुरवैया...

मंगलवार, मई 5

छा गयी जब बदलियाँ

छा गयी जब बदलियाँ


हवा की सरगोशियाँ
पर झुलाती तितलियाँ,
डोलते से शाख-पत्ते
झूमती सी कहकशां !

एक चादर सी बिछी हो
या धरा पर चुनरियाँ ,
पुष्प जिस पर सज रहे हैं
मस्त यूँ नाचे फिजां !

आ गये मौसम सुहाने
छा गयी जब बदलियाँ,
धार अम्बर से गिरी ज्यों
रहमतें बरसें जवां !

गा रहे पंछी मगन हो
छा रही मदहोशियाँ,
हैं कहीं नजदीक ही वह
कह रही खामोशियाँ !