शनिवार, सितंबर 29

इन्द्रधनुष सा ही जग सारा



इन्द्रधनुष सा ही जग सारा


एक दिवस, दिन की गुल्लक से
कुछ अद्भुत पल चुरा लिए थे,
ऋतु सुहावनी थी बसंत की
मदमाती सुरभित हवा लिए !

पर्वत के ऊँचे शिखरों पर
हिम के स्वर्णिम फूल खिले थे,
देवदार के तरुओं पर भी
आभामय कुछ छंद लिखे थे !

स्फााटिक मणि सी निर्मल शीतल
जल धारा इक बहती जाती,
फूलों की घाटी थी नीचे
तितली, भ्रमरों को लुभाती !

उन अनमोल क्षणों को दिल की
गहराई में छुपा रखा था,
आज टटोला सिवा ख्याल के
कहीं नहीं थी उनकी छाया !

काल चक्र भरमाता अविरत
चुकती जाती जीवन धारा,
अभी यहीं है, अभी नहीं है
इन्द्रधनुष सा ही जग सारा !


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