मंगलवार, मार्च 25
रविवार, मार्च 23
भीतर कोई राह देखता
भीतर कोई राह देखता
ऊपर वाला खुला राज है
फिर भी राज न खुलने वाला,
देखा ! कैसा चमत्कार है
या फिर कोई गड़बड़ झाला !
कण-कण में वह व्याप रहा है
छिपा हुआ सा फिर भी लगता,
श्वास-श्वास में वास उसी का
दर्शन हित मीलों मनु चलता !
ढूँढ रहा जो गर थम जाये
जाये ठहर चाहने वाला,
भीतर कोई राह देखता
जग जाता गर सोने वाला !
देख लिया ? नहीं, देख रहा है !
इस पल के बाहर न मिलता,
पल-पल सृष्टि नवल हो रही
नित्य ही सब कुछ रचा जा रहा !
राज अनोखा जाना जिसने
वही ठगा सा खड़ा रह गया,
ख़ुद को देखे या अनंत को
भेद न कोई बड़ा रह गया !
मंगलवार, मार्च 18
भेद न उसका जाना जाता
पर सब यहाँ नचाये जाते,
भ्रम ही है सब बोल रहे हैं
कोई बुलवाता भीतर से !
अनजाने ही भाव उमड़ते,
कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !
तब तक काटा-छीला जाता,
जब तक शून्य नहीं हो जाता
तब तक मनस तराशा जाता !
उसके हाथों की कठपुतली,
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है
चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !
अभी गगन पर जिसे बिठाया,
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
भेद न उसका जाना जाता,
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में
सच का सान्निध्य नहीं मिलता !
रविवार, मार्च 16
प, फ, ब, भ, म
प, फ, ब, भ, म
प-वर्ग में आकर बसते हैं
सारे रिश्ते जो भाते हैं,
परम परमात्मा, भगवान भी
पंचम सुर में ही गाते हैं !
प औ’ म के मध्यांतर में इक
रिश्तों का संसार बसा है,
प से पिताजी और म से माँ
इनसे ही परिवार बना है !
प से पत्नी, प्रियतम भी प से
फ से फूफी-फूफा कहाते,
ब बना बहना, बिटिया, बेटी
भ भाई का भाभी भी भ से !
मामा-मामी, मौसा-मासी
माँ सम ममता सदा लुटाते,
भ से भार्या, भगिनी भी भ से
ब से बुआ व बहू बन जाते !
शुक्रवार, मार्च 14
जीवन इक मधुरिम उत्सव है
होली की शुभकामनाएँ
फागुन मास भरे उल्लास
पूनम का चाँद जगाये याद,
उड़ते रंग भरते उमंग
अबीर, गुलाल, मिटायें मलाल !
मीठी गुझिया भुजिया तीखी
लपट अगन की लौ लगन की,
छाया वसंत हुआ शीत अंत
मन मोर थिरक भरे एक ललक !
यह राग-रंग धुन मस्ती की
बस याद दिलाने ही आती,
जीवन इक मधुरिम उत्सव है
कुदरत की हर शै यह गाती !
सोमवार, मार्च 10
आया मार्च
आया मार्च
आया मार्च ! हरी आभा ले
वृक्षों ने नव पल्लव धारे,
धानी चमकीले रंगों से
तरुवर ने निज गात सँवारे !
आया मार्च ! अरुण आभा ले
फूला पलाश वन प्रांतर में,
चटक शोख़ रक्तिम पल्लव से
डाली-डाली सजी वृक्ष में !
आया मार्च ! मौसम रंगीन
फागुन की आहट कण-कण में,
बैंगनी फूलों वाला पेड़
बस जाता मन में नयनों से !
आया मार्च ! महक अमराई
छोटी-छोटी अमियाँ फूटीं,
भँवरे डोला करें बौर पर
दूर नहीं रस भरे आम भी !
आया मार्च ! कहीं बढ़ा ताप
कहीं अभी भी शीत व्यापता,
कुदरत की लीला पर मानव
चकित हुआ सा रहे भाँपता !
शुक्रवार, मार्च 7
इतना ही तो कृत्य शेष है
इतना ही तो कृत्य शेष है
‘मैं’ बनकर जो मुझमें बसता
‘तू’ बनकर तुझमें वह सजता,
मेघा बन नभ में रहता जो,
धारा बन नदिया में बहता !
चुन शब्दों को गीत बनाना
अपनी धुन में उसे बिठाना,
इतना ही तो कृत्य शेष है
सुनना तुमको और सुनाना !
अब न कोई सीमा रोके
नील गगन में किया ठिकाना,
खुला द्वार, है खुला झरोखा
सहज हो रहा आना जाना !
बुधवार, मार्च 5
हमको हमसे मिलाये जाता है
हर शुबहे को गिराए जाता है
वह हर इक पल उठाये जाता है
खुदी को सौंप कर जिस घड़ी देखा
वह ख़ुद जैसा बनाये जाता है
न दूरी न कोई भेद है उससे
हमको हमसे मिलाये जाता है
चाह जब घेरने लगती हृदय को
भँवर से दूर छुड़ाए जाता है
घेरा हवा औ' धूप की मानिंद
ज्यों आँचल में छुपाये जाता है
हो रहो उसके महफ़ूज़ रहोगे
सबक़ यह रोज़ सिखाये जाता है
रविवार, मार्च 2
अब बहुत हुआ लुकना-छिपना
शुक्रवार, फ़रवरी 21
मन
मन
नींदों के पनघट पे
यादों को बुनता है,
ख़्वाबों के झुरमुट में
शब्द पुष्प चुनता है !
भावों की माला रच
ताल में पिरोता है,
अर्पित कर चरणों में
अश्रु में भिगोता है !
जाने क्या पाएगा
गीत रोज़ गाता है,
तारों से बात करे
चंदा संग जगता है !
किसकी वह राह तके
किसको पुकारे सदा,
शब्दों की नाव बना
मन, सागर तिरता है !
मंगलवार, फ़रवरी 18
चाह
चाह
स्वयं को केंद्र मानकर
दूसरे को चाहना
पहली मंजिल है
जो हर कोई पा लेता है
दूसरे को केंद्र मानकर
स्वयं को समर्पित कर देना
दूसरी मंज़िल है
जिसकी तलाश पूरी होने में
समय लगता है
न स्वयं, न दूसरे को
अस्तित्त्व को केंद्र मान
मुक्त हो जाना है
अंतिम सोपान
खुद से पार चला जाये जब कोई
तब सिद्ध होता है अभिप्राय
काश ! सबके जीवन में
जल्दी ही ऐसा दिन आए !
रविवार, फ़रवरी 16
गहराई
गहराई
चेतना जुड़ती है जगत में
इससे-उससे
लोगों, विचारों
क्रिया और वस्तुओं से
शायद कुछ भरना चाहती है
नहीं जानती
भीतर अंतहीन गहराई है
जो नहीं भरी जा सकती
किसी भी शै से
इसी कोशिश में
कुछ न कुछ पकड़ लेता है मन
और जिसे पकड़ता
वह जकड़ लेता है
फिर छूटने उस जकड़न से
साधता है वैराग्य
ऐसे ही बनता है
मानव का भाग्य !
बुधवार, फ़रवरी 12
जीवन स्रोत
जीवन स्रोत
उस भूमि पर टिकना होगा
जहाँ प्रेम कुसुमों की गंध भरे भीतर
सत्य की फसल उगती है
जहां अभेद के तट हैं
शांति की नदी बहती है
जब जगत में विचरने की बारी आये
तब भी उस भूमि की याद मिटने न पाये
जहां एकत्व है और स्वतंत्रता
अटूट शाश्वत समता
जो अर्जित की गई है
पूर्णता की धारा से
जहाँ आश्रय मिलता है
हर तुच्छता की कारा से
वहीं ठिकाना हो सदा मन का
जो स्रोत है हर जीवन का !