चमक
चारों ओर से आकाश ने घेरा है
धरा नृत्य कर रही है अपनी धुरी पर
और परिक्रमा भी उस सूर्य की
जिसका वह अंश है
ऐसे ही
जैसे जीवन को सँभाला है
अस्तित्त्व ने
जैसे रत्न जड़ा हो सुरक्षित अंगूठी में
आनंद में डोलती हर आत्मा
परिक्रमा करती है परमात्मा की
जैसे कृष्ण के चारों ओर राधा
प्रेम की यह गाथा अनादि है
और अनंत भी
कितना भी झुठलाये मानव
प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है
वही चमक है आँखों की
वही नमक है जीवन का
प्रेम का वह मोती सागर में गहरे छिपा है
पर उसकी चमक
सूरज की रोशनी से ही उपजी है
ऐसे ही जैसे हर शिशु की मुस्कान में
माँ ही मुस्काती है !