गुरुवार, फ़रवरी 2

मौसम का वर्तुल


मौसम का वर्तुल 

आते और जाते हैं मौसम 
जंगल पुनः पुनः बदलते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली बन चुभती है
कभी तपाती..आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती   
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
जैसे बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें 
मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता मन
कैसा पावन नहीं हो जाता 
एक प्रौढ़ मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..

10 टिप्‍पणियां:

  1. संपूर्ण जीवन-गाथा उकेरती,अध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण रचना।
    सादर।

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ फरवरी २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. मनुष्य को समय रहते अपने कर्तव्यों का अवलोकन करना ज्यादा श्रेयस्कर है, नहीं तो जिंदगी समय नहीं देती,बस चुपचाप दर्शक बनकर देखना पड़ता है,
    सोचने को विवश करती सुंदर रचना।

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    1. शत प्रतिशत सही कह रही हैं आप, आभार जिज्ञासा जी !

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  3. तन मन का मौसम !
    ऋतु चक्र सा जीवन
    वाह!!!
    वृद्धावस्था में सिकुड़ते तन में फैलता मन का कैनवास
    लाजवाब👏👏🙏🙏

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    1. सुंदर प्रतिक्रिया हेतु आभार सुधा जी!

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