रविवार, मई 5

प्रेम

प्रेम 


जिस पर फूल नहीं खिल रहे थे 

उसने उस वृक्ष को 

पास जाकर ऐसे छुआ 

जैसे कोई अपनों को छूता है 

और अचानक कोई हलचल हुई 

पेड़ सुन रहा था 

चेतना हर जगह है 

आकाश में तिरते गुलाबी बादलों  

और लहराती पवन में भी 

 प्रकट हो जाती है 

एक नई दुनिया ! 

जब विस्मय से भर जाता है मन

जैसे कदम-कदम पर कोई 

मंदिर बनता जा रहा हो 

और हर शै उसमें रखी मूरत 

कभी सुख-दुख बनकर 

जिसने हँसाया-रुलाया था 

  शाश्वत बन जाता है वही मन

इतना कठोर न बने यदि 

कि प्रेम भीतर ही भीतर 

घुमड़ता रह जाये 

बंद गलियों में उसकी 

और न इतना महान 

कि प्रेम मिले किसी का 

तो अस्वीकार कर दे 

प्रेम जीवंत है 

वही बदल रहा है 

सागर की लहरों की तरह 

वही यात्री है वही मंज़िल भी !


5 टिप्‍पणियां:

  1. वही यात्री है वही मंज़िल भी !
    व्वाहहहहहह

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  2. प्रेम का बाखूबी लिखा है ... नदी की तरह बहता रहता है प्रेम ... भिगोता है कोई चाहे तो ...

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