एक अजूबा है यह दुनिया
फूलों के हार भी मिलते हैं यहाँ
बैठाया जाता है ऊँचे सिंहासनों पर
फ़ैल जाता है भीतर कुछ...
और एक मुस्कान भर जाती है
पोर–पोर में
अभी चेहरे से उसकी चमक गयी भी नहीं होती
अभी तक उफान शांत हुआ भी नहीं होता भीतर का
कि उतरने का क्षण भी आ जाता है आसन से
फिर छा जाते हैं सिकुड़न, उदासी और भारीपन के बादल
मन के आकाश पर
यूँ कभी सागर की लहरों में आये ज्वार सा मन
छूने लगता है आकाश की ऊँचाइयों को जब
टूट जाता है भ्रम
और जमीनी सच्चाई से पड़ता है पाला
पर.. न सम्मान टिकता है न अपमान...
न जाने कितनी बार यह खेल दोहराया गया है
कितनी ही बार बेगानों व अपनों से मन चोट खाया है
जान लेता है जो
वह पार हो जाता है
जिंदगी नाम के इस खेल से
जहां जीतो या हारो
अंत में हाथ खाली ही रह जाते हैं
व्यर्थ हो जाते हैं ऊर्जा और समय
देख ले जाग के जो इस सत्य को
जिसका सम्मान हुआ वह मैं नहीं था
जिसका अपमान हुआ वह भी नही
सम्मानित किया जिसने यह सोच थी उनकी
अपमान करने वाले की भी अपनी थी मर्जी
उनके मन को भला मैं कैसे जानूँ
जब अपना ही मन न पहचानूँ
कि मेरा होना नहीं टिका है
इन छोटे छोटे सुखों-दुखों पर
जो दूसरे मेहरबानी से मुझपर लुटाते हैं
यह तो कोई और ही बात है
जिस तक पहुंच न सकती कोई आँच है
जहां न दिन होता न होती रात है
वह एक सा भीतर कोई मैं जाग रहा हूँ
फिर क्यों कुछ पाने बाहर भाग रहा हूँ
बाहर तो लुटाना है
अपनी ऊर्जा अपने ज्ञान का झरना बहाना है
सोचते ही मुस्कान खिल जाती है लबों पर
अखंड आन-शान-बान मिल जाती है भीतर
जो नहीं मुरझाती या खिलती
किसी के सम्मान या अपमान से
दोनों खेल हैं खुद तक ले जाने के लिए
खुद से मिलकर खुद को लुटाने के लिए..
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