कौन हो तुम ? 
सुंदर मुखड़ा तुमने पाया 
कोमल केश नशीली ऑंखें, 
चमक रही चन्दन सी काया ! 
किन्तु नहीं तुम देह, कौन हो तुम ? 
तन के भीतर धड़क रहा मन 
सुख-दुख, आस-निरास का डेरा, 
नित राग-द्वेष के बांधे बंधन ! 
किन्तु नहीं तुम मन, कौन हो तुम ? 
सुमति, सुबुद्धि की अधिकारी 
सही गलत का भेद जानती, 
कर्म सदा करती हितकारी ! 
किन्तु नहीं तुम मति, कौन हो तुम ? 
मन, बुद्धि पर मोहर लगाता 
स्वयं को करता-धर्ता माने, 
अहं भाव सदा भरमाता ! 
किन्तु नहीं तुम अहं, कौन हो तुम ?
अनंत प्रेम का जो है सागर 
सत चिद आनंद रूप है जिसका, 
छलकाता मस्ती की गागर !
वही शुद्ध स्वरूप हो तुम, हो निर्दोष शुद्ध आत्मा !
अनिता निहालानी 
५ जनवरी २०११  
 
सुंदर मुखड़ा तुमने पाया कोमल केश नशीली ऑंखें, चमक रही चन्दन सी काया !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर -
आत्मा तो निर्मल है ही..!!
शुभकामनाएं
बहुत ही बढिया.
जवाब देंहटाएंसादर
bahut sundar abhivyakti!
जवाब देंहटाएंbahut sundar abhivyakti .badhi .
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आत्मा का ही इतना सुन्दर रूप हो सकता है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता.
आत्मा का स्वरुप सुंदरता से चित्रित!
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंशब्द नहीं हैं मेरे पास उस अनकहे को व्यक्त करने के लिए ......वाह......मेरा मौन ही प्रमाण है |
बधाई स्वीकार करें सुंदर रचना के लिए |
जवाब देंहटाएंउस अव्यक्त को संदर रूप में व्यक्त करदिया आपने!
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