गति वैसी होनी जानी है !
कर्मों की गति अटल बड़ी है
लेकिन सीधी, सरल, सही है,
जैसा भाव, कर्म, वाणी है
गति वैसी होनी जानी है !
शुभ कर्मों से पुण्य कमाते 
पाप बांधते दुष्कर्मों से, 
पुण्य सदा सुखकारी जग में 
दुःख लाए पाप जीवन में !
इसी तरह तो क्रम सुख-दुःख का 
जारी रहता जन्म-जन्म में, 
हर्षित कभी, कभी पीड़ित हो 
झेला करते पड़े भरम में !
टूटे कैसे चक्रव्यूह यह 
मुक्त गगन में विहरें कैसे, 
एक मार्ग पर चलते चलते 
मंजिल को हम पालें कैसे ! 
कर दें सारे कर्म समर्पित 
खाली खाली सा यह मन हो, 
स्वयं को साक्षी भाव में रखें 
फिर हो जाये जो होना हो ! 
हल्का मन उड़ान भरेगा 
कर्म नहीं हमको बांधेगें,
नहीं बेड़ियाँ रोकेंगी फिर 
मुक्त सदा विचरेंगे जग में !
अनिता निहालानी 
जनवरी २०११  
 
स्वयं को साक्षी भाव में रखें फिर हो जाये जो होना हो !-- इस पंक्ति में सब कुछ आ गया.यही तो सीखने समझने की जरूरत है.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.....ये पंक्ति सबसे अच्छी लगी....
पुण्य सदा सुखकारी जग में
दुःख लाए पाप जीवन में !
सच है हम स्वयं से ही दुःख पाते है और भला यहाँ कौन है जो हमें दुःख दे सकता है...ये सिर्फ और सिर्फ हमारा चुनाव है|