अब कैसी दूरी अंतर में
जान लिया जब भेद हृदय का
अब कैसी दूरी अंतर में,
अंतरिक्ष में ग्रह घूमें ज्यों
चंद्र-सूर्य अपने अंबर में !
उड़ना चाहें जितना उड़ लें
भीतर बसा आकाश अनंत,
मिलते ही जिससे हो जाता
हर पीड़ा हर रंज का अंत !
जीवन इक उपहार अनोखा
तन, मन, मेधा वाहक जिसके,
श्वास-श्वास में वही गा रहा
वही छिपा है चेतनता में !
अत्यन्त सुंदर छटा मनभावन मन के भीतर ही मन में समाए है ।
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