बुधवार, जून 11

घटता है जो इक ही पल में

घटता है जो इक ही पल में



कभी अचानक झर जाता ज्यों
 मेघ भरा हो भाव नीर से,
रिस जाता अमि अंतर घट का
रहा अछूता जो पीड़ा से !

सहज कभी पुरवाई बहती
खुल जाते सब बंद कपाट,
भीतर बाहर मधु गंध इक
उमड़ संवारे प्राण सपाट !

घोर तिमिर में द्युति लहर ज्यों
पथ प्रशस्त कर देती पल में,
भर जाता अनुराग अनोखा
कोई आकर हृदय विकल में !

मुस्काता ज्यों शशि झील में
झलक कभी आ जाती उसकी,
 स्मृति नहीं, ना ही भावना
घटता है जो इक ही पल में !

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और प्रभावी रचना...

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  2. आपको पढ़कर अंतर घट अमि से भर सा जाता है.. अति सुन्दर कृति..

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  3. बहुत सुन्दर सार्थक रचना...

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  4. कैलाश जी, प्रतिभा जी, शालिनी जी, अमृता जी, माहेश्वरी जी, अंकुर जी, ओंकार जी, सतीश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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