बुधवार, अगस्त 16

फूल ढूँढने निकला खुशबू

फूल ढूँढने निकला खुशबू

पानी मथे जाता संसार
बाहर ढूँढ रहा है प्यार,
फूल ढूँढने निकला खुशबू
मानव ढूँढे जग में सार !

लगे यहाँ  राजा भी भिक्षुक
नेता मत के पीछे चलता,
सबने गाड़े अपने खेमे
बंदर बाँट खेल है चलता !

सही गलत का भेद खो रहा
लक्ष्मण रेखा मिटी कभी की.
मूल्यों की फ़िक्र भी छूटी
गहरी नींद न टूटी जग की !

जरा जाग कर देखे कोई
कंकर जोड़े, हीरे त्यागे,
व्यर्थ दौड़ में बही ऊर्जा
पहुँचे कहीं न वर्षों भागे !

 चहुँ ओर बिखरा है सुदर्शन
आँखें मूँदे उससे रहता,
तृप्त न होता भिक्षु मन कभी
अहंकार किस बूते करता !

हर क्षण लेकिन भीतर कोई
बैठा ही है पलक बिछाये,
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
जाने कब वह शुभ दिन आये !

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-08-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2699 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 17 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सुन्दर भावनाओं से ओत -प्रोत ,हृदय की बात धीमे से कहती आपकी रचना हृदय को स्पर्श करती हुई। आभार ,"एकलव्य"

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    1. बात आपके हृदय तक पहुँची, इसमें ही शब्दों की सार्थकता है..स्वागत व आभार !

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  4. लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीया ।

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  5. Atyanta Darshnik dhand se is geet mein aadhunik vyakti ke vyarth-nirarth bhag-daud aur uske vyarth-nirarth mantavyon ko ujagar kiya gaya hai. Antardrishti toh sabkee khulnee hi chahiye tabb hi jagat ki vaastvik chhavi saakar hogi manushya lok mein.

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    1. आपने बिलकुल सही कहा है, आज समाज में नैतिकताओं और वर्जनाओं को पुरातन पंथी मान कर त्यागने की जो प्रवृत्ति पनप रही है, उससे आदमी भीतर से खोखला होता जा रहा है.

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  6. बहुत खूबसूरत रचना‎ अनीता जी .आप का "मंथन"पर हृदयतल से स्वागत है .

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