बुधवार, अप्रैल 11

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल


पैमाना हम ही तय करते
जग को जिसमें तोला करते,
कुदरत के भी नयन हजारों
भुला सत्य यह व्यर्थ उलझते !

जो चाहा है वही मिला है
निज हाथों से जीवन गढ़ते,
बाधाएँ जो भी आती हैं
उनमें स्वयं का लिखा ही पढ़ते !

दुःख के बीज गिराए होंगे
कण्टक हाथों में चुभते हैं,
मन संकीर्ण राह का राही
भय के जब दानव डसते हैं !

सुख की महज आस भर की थी
जब ग्लानि के पुल बांधे थे,
आशंकाएं भी पाली थीं
महल गढ़े थे सुख स्वप्नों में  !

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल
जिसने राज हृदय में जाना,
जो अबूझ  कर रहा इशारे
उस दर पाया सहज ठिकाना !

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर काव्य ...
    हम खुद ही हर बात के पैमाने तय करते हैं और फिर सत्य को भी उसी पर परख लेते हैं ... अपने दुःख सुख खुद ही बोते हैं ... और अंतिम छंद में सहजता से कह दिया की उस इशाये को समझो यदि मुक्त होना है ... अपने क्रिदय में खुद ही झांको ...
    गहरा दर्शन जीवन का इस रचना में ....

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कुन्दन लाल सहगल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. बहुत बहुत आभार हर्षवर्धनजी !

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  4. कुछ ऐसा कि आत्यंतिक परिचय हो रहा हो ।

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