खुलवाएं जो बंद द्वार है
भीतर भरा भंडार अनोखा
बाहर का सब फीका फीका
भीतर बहते अमृत सरवर
बाहर का जल फीका फीका
माना की यह जग सुंदर है
माया ही माया है सारी
पल भर का ही खेल जगत का
डूबी जिसमें बुद्धि हमारी
झूठे सिक्के हैं ये जग के
ज्यादा दिन न चल पायेगें
राज खुलेगा जब इस जग का
जाने के दिन आ जायेगें
वक्त रहे अमृत को पालें
त्याग तमस उजास उगा लें
मृत्यू ग्रसने आये पहले
खुद ही उससे हाथ मिला लें
जीवन छुपा ढूढें उस पार
खुलवाएं जो बंद है द्वार
हममें भी कुछ श्रेष्ट छिपा है
खुद से रखा नहीं सरोकार
अनिता निहालानी
७ अक्तूबर २०१०
आध्यात्म और अन्तर्मन का मेल ही सब द्वार खोल सकता है.... सुन्दर भाव भरी रचना के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंअनिता जी, मन के तारों को झंकृत कर गयी आपकी कविता। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंवाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
..................................................क्या कहूँ अल्फाज़ नहीं हैं परे पास.......वाह.....वाह
जवाब देंहटाएंआप सबका आभार व ब्लॉग पर स्वागत ! संजय जी, एक बार पहले भी आप ने कुछ कविताओं को पढ़ा था व अपनी राय से नवाजा था.
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