हम डाकिये 
जो भी जिसने जग में पाया 
एक उसी स्रोत से आया 
सदा मुक्त हो उसे लुटायें 
क्यों न हम डाकिये बन जाएँ ?
झोली कभी न होगी खाली 
छिपा वहाँ है अनंत खजाना 
छोड़ कृपणता हों उदार तो 
जानें, देना ही है पाना I  
देने में ही राज छिपा है 
लुटा रहा वह युगों युगों से 
कुदरत में अनमोल रत्न हैं 
देना चाहे हमें कभी से I
थोड़ा सा पाकर हम हर्षित 
छुपा-छुपा कर सबसे रखते 
प्रेम भाव भी मुस्कान भी 
जाने क्यों देने से डरते I 
क्या कुछ हमसे खो जायेगा 
क्या अपना है पास हमारे 
जो तुच्छ है वही कमाया 
श्रेष्ठ सभी गुण उसके सारे I 
उसका ही उसको लौटाएं 
व्यर्थ भार क्यों ढोयें जग में 
खाली हों बांसुरी जैसे 
सुर उसके गूंजेगें हम में I 
अनिता निहालानी 
११ अक्तूबर २०१०
 
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंआपकी रचना पढ़ने के बाद कहने के लिए अल्फाज़ ही नहीं मिलते..........हर पंक्ति लाजवाब..........काश मैं कभी ऐसा लिख पाऊँ.....आपकी हर रचना इस अस्तित्व को छूती है.......हर रचना सूफियाना कलाम से सराबोर होती है......मेरी शुभकामनायें हैं आप हमेशा ऐसे ही लिखती रहिये |
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
जवाब देंहटाएंशब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।