मन पानी, आत्मा अग्नि 
छल-छल कल-कल करता जल जो 
गति नीचे कर बहता जाता, 
ऐसे ही यह मन मानव का, 
जल सम नीचे ही ले जाता ! 
सर-सर, फर-फर करे अनल ज्यों 
ऊपर की ही दौड़ लगाती, 
सजग हुई आत्मा अपनी 
उच्च लोक में ही ले जाती ! 
जल, अग्नि के निकट हुआ जब 
वाष्प रूप में बुद्धि प्रकटी, 
जब तक साथ आत्मा का है 
गति ऊपर, फिर नीचे आती ! 
ऊपर नीचे, नीचे ऊपर 
मन ही मानव को भटकाता, 
कभी बूंद बन लगे बरसने 
कभी मेघ बन नभ पर छाता ! 
अग्नि सम यदि स्वयं को जाने 
गति ऊपर की ही होगी उसकी, 
पावन है पावन कर सकती 
अग्नि में है अनुपम शक्ति ! 
भटका जल पोखर हो बैठा 
कभी किसी सँग मिल के मैला, 
जिसका सँग हो वैसे बनता 
जल है कोई बिगड़ा छैला ! 
अग्नि पारस सी पावन है 
माना प्यास बुझाता है जल, 
अग्नि के सम्पर्क में आ ही 
शुद्ध हुआ करता है जल !
 
ऊपर नीचे, नीचे ऊपर
जवाब देंहटाएंमन ही मानव को भटकाता,
कभी बूंद बन लगे बरसने
कभी मेघ बन नभ पर छाता !
आपकी हर कविता को पढ़ने का अलग ही आनंद है।
सादर
अग्नि पारस सी पावन है
जवाब देंहटाएंमाना प्यास बुझाता है जल,
अग्नि के सम्पर्क में आ ही
शुद्ध हुआ करता है जल !
जल और मन के प्रवाह को कविता का विषय बना बहुत हि सुंदर प्रस्तुति पेश की है अनीता जी. बहुत आभार.
बहुत ही खुबसूरत.....
जवाब देंहटाएंज्ञानमय कृति,आभार !
जवाब देंहटाएंपोर-पोर ज्ञान की आभा से दैदीप्यमान ....
जवाब देंहटाएंअग्नि के सामान ...
बहुत सुंदर रचना ....
अनीता जी, एक बात कहनी थी..आप अपनी रचनाओं का ऑडियो बनवाएं. स्वरबद्ध होकर जन-जन के ओठों पर होगी. सुन्दर भजन बनेगा.
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ..
जवाब देंहटाएंमैं अमृता तन्मय की बात से एकदम सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंएक ओजस्वी प्रवाहमयी रचना । शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट|
जवाब देंहटाएंअमृताजी व दीदी, आभार इस सुझाव के लिये कि मेरी कवितायें भजन के रूप में जन-जन तक पहुंचें, इस दिशा में प्रयास करने के लिये यदि आपके पास कोई और सुझाव हो तो दें, यहाँ दुलियाजान में तो यह संभव नहीं है.
जवाब देंहटाएं