मन के पार उजाला बिखरा 
जीवन इक लय में बढ़ता है 
भोर जगे साँझ सो जाये, 
कभी हिलोर कभी पीर दे 
जाने क्या हमको समझाये ! 
नए नए आविष्कारों से 
एक ओर यह सरल हो रहा, 
प्रतिस्पर्धायें बढ़ती जातीं 
जीवन दिन-दिन जटिल हो रहा ! 
निज पथ का राही ही तो है 
अपनी मति गति से चलता है, 
फिर भी क्यों मानव का उर 
सहयात्री से भी डरता है ! 
मित्रों में ही शत्रु खोजता 
प्रेम के पीछे घृणा छिपाए, 
दोहरापन ही तोड़ रहा है 
दीवाना मन समझ न पाए !
मन के पार उजाला बिखरा 
नजर उठाकर भी न देखे,
स्वयं का ही विस्तार हुआ है 
स्वयं ही सारे लिखे हैं लेखे ! 
 
स्वयं का ही विस्तार हुआ है
जवाब देंहटाएंस्वयं ही सारे लिखे हैं लेखे !
ओह अनीता जी ...
पिचले दिनों ऐसे ही कुछ भाव मेरे मन में भी उठ रहे थे ...कुछ लिखा भी है ...आप पढ़ेंगी तो समझ जाएँगी .....
बहुत खूबसूरत रचना है ....
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमित्रों में ही शत्रु खोजता
जवाब देंहटाएंप्रेम के पीछे घृणा छिपाए,
दोहरापन ही तोड़ रहा है
दीवाना मन समझ न पाए !
बहुत सुन्दर पोस्ट..........ये पंक्तियाँ तो शानदार हैं |
मन के पार उजाला बिखरा
जवाब देंहटाएंनजर उठाकर भी न देखे,
स्वयं का ही विस्तार हुआ है
स्वयं ही सारे लिखे हैं लेखे !
....बहुत सार्थक और सुन्दर...आभार
प्रतिस्पर्धायें बढ़ती जातीं
जवाब देंहटाएंजीवन दिन-दिन जटिल हो रहा !
सच!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
dcgpthravikar.blogspot.com
बेहतरीन अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधी व सुह्रद पाठकों का आभार!
जवाब देंहटाएंमित्रों में ही शत्रु खोजता
जवाब देंहटाएंप्रेम के पीछे घृणा छिपाए,
दोहरापन ही तोड़ रहा है
दीवाना मन समझ न पाए !
सही कहा है ..सुन्दर रचना
नए नए आविष्कारों से
जवाब देंहटाएंएक ओर यह सरल हो रहा,
प्रतिस्पर्धायें बढ़ती जातीं
जीवन दिन-दिन जटिल हो रहा ...
विकास की ये गति भी परिवर्तनशील है ... इस जटिलता के बाद ही सरल्पन आयगा ...
संगीता जी व दिगम्बर जी, आपका बहुत बहुत आभार ! जटिलता के बाद ही सरलता आयेगी आपकी बात भी सही है.
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