रेशम के फाहों सी नर्म नर्म धूप 
(१)
पूरब झरोखे से झांक रही 
धूप की गिलहरी 
 उतरी बिछौने पर 
जाने कब बरामदे से 
उड़न छू हो गयी... 
धूप वह सुनहरी ! 
सर्दियों की शहजादी 
भा गयी हर दिल को 
पकड़ में न आये 
चाहे लाख हम मनाएं 
देर से जगती है 
धूप सुकुमारी !
(२)
तन मन को दे तपन 
अंतर सहला गयी 
महकाती धूप 
कलियाँ जो सोयीं थीं 
कोहरे की चादर में
लिपटीं जो खोयीं थीं 
जाने किन स्वप्नों में 
जागीं, जब छू गयी 
गुनगुनी सी धूप !
मोती जो अम्बर से 
छलके थे ओस बन 
चमचम खिल गा उठे 
मौन गीत झूम 
सँग ले उड़ा गयी 
अलसाई धूप 
नन्हें से गालों पर 
फूल दो खिला गयी 
मनभाई धूप ! 
 
बहुत बढ़िया लिखा है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर........सर्दी में धूप की महत्ता का सजीव चित्रण|
जवाब देंहटाएंमोती जो अम्बर से
जवाब देंहटाएंछलके थे ओस बन
चमचम खिल गा उठे
मौन गीत झूम
सँग ले उड़ा गयी
अलसाई धूप
बहुत ही खूबसूरत कविता।
सादर
सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंसर्दियों के मौसम में
जवाब देंहटाएंधुप-स्तुति का महत्त्व
वैसे भी बढ़ ही जाता है ....
बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति !
नन्हें से गालों पर
जवाब देंहटाएंफूल दो खिला गयी
मनभाई धूप !
.....वाह,क्या बात है,
बहुत सुन्दर ..धूप की गिलहरी ..सुन्दर बिम्ब
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएं