मंगलवार, जून 18

हम आत्मदेश के वासी हैं

हम आत्मदेश के वासी हैं 


भीतर एक ज्योति जलती है 

जो तूफ़ानों में भी अकंप, 

तन थकता जब मन सो जाता

जगा रहता आत्मा निष्कंप !


तन शिथिल हुआ मन दृढ़ अब भी 

‘स्वयं’ सदा जागृत है भीतर, 

हम आत्मदेश के वासी हैं 

फिर क्यों हो जरा-मृत्यु से डर !


मृत्यु पर पायी विजय हमने 

जिस पल भीतर देखा ख़ुद को, 

नित मौन अटल घटता अंतर

बाहर बैठाया हर  दुख को  !


जीवन की संध्या आती है 

कब मेला यह उठ जाएगा ? 

नहीं शिकायत कोई जग से 

संग ‘वही’ अपने जाएगा  !


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