वह
छोटी-छोटी बातों से था, जब भी मन अकुलाया
इस मन की भाषा को कोई, समझ बूझ ना पाया
इधर टटोला उधर निहारा, हल ना कोई पाया
आतुर होकर देखा भीतर, एक उसे ही पाया
मिली सांत्वना और शांति, सँग उसी के होके
धीरे-धीरे समझ में आये, निज मन के ही धोखे
स्वयं ही वह कामना गढ़ता, रंग अनोखे भरता
रही अपूर्ण यदि तो स्वयं ही, स्वयं को घायल करता
मेधा से मन जांचा परखा, सारे सपने झूठे
जिनमें कोई सार नहीं था, लगते वही अनूठे
कुछ बन जाऊँ, कुछ यश पालूँ, सुनाम यहाँ कमा लूँ
इसी तरह के और स्वप्न भी, भाग्य बड़ा बना लूँ
जब भी भीतर जाकर देखा, सोया क्षीरसागर में
हर्षित,पुलकित पाया उसको, परम सुख योगनिद्रा में
जिसके होने से सब होता, शेष यहाँ भ्रम होता
जीवन पल-पल यही सिखाता, व्यर्थ मन सपने बोता
हर सुख-दुःख में उसको पाया, एक वही तो अपना
हर पल वही बुलाता हमको, सत्य वही सब सपना
अनिता निहालानी
२८ सितम्बर २०१०
बहुत ख़ूबसूरत और शानदार...जीवन के सच को भी पिरो दिया है बहुत बहुत बधाई...
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