सोमवार, सितंबर 20

मन जब अपने घर को लौटा

मन जब अपने घर को लौटा

रह रह कर मस्ती की गागर
जाने किसने भीतर फोड़ी,
अनजानी सी कुछ अनछूई
खुशियों की चादर है ओढ़ी I
 
नेह पगा मन टपकाए जो
रस की मधुरिम धार नशीली,
बिन कारण अधरों पर अंकित
कोमल सी मुस्कान रसीली I
 
न स्मृतियाँ ना स्वप्न ही कोई
भीतर एक खाली आकाश,
उसी शून्य से झर झर झरता
शुभ मदमाता स्नेहिल प्रकाश I
 
कदमों में थिरकन भर जाता
हाथों भरे ऊर्जा अभिनव,
नयनों में जल प्रीत है भरा
मन अंतर में उल्लास प्रणव I
 
गुनगुन करता कोई विहरे
चेतनता का गूँजता गान,
तार जुड़ें जब हों अदृश्य से
बिना साधे सधता है ध्यान I
 
उत्सव के उल्लास में डूब
जाने कौन पाहुना आया,
मन जब अपने घर को लौटा
चैन जहाँ भर का फिर पाया I


अनिता निहालानी
२० सितम्बर २०१०

2 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

    जवाब देंहटाएं
  2. अनुभव ही वह कागज है अनुभव ही वह स्याही, जिससे रचना लिखी नहीं जाती वह लिखवा लेता है!

    जवाब देंहटाएं