बुधवार, अगस्त 3

कैनवास मन का


कैनवास मन का

कभी फैलता है तो...
फैलता ही चला जाता है.... मन का आकाश
अनंत को छूता हुआ सा...
अंतरिक्ष की गहराइयों में खोता हुआ सा...
और जब सिकुड़ता है तो एक नोक की तरह
चुभती है उसकी उपस्थिति
ऐसा सिकुड़ता है कि कभी-कभी दम घुटता है
श्वास भी लेनी होती है कठिन
कभी उड़ता है गगन में... मेघ की भांति
या पंछी सा उन्मुक्त...
और कभी सहम कर दुबक जाता है अँधेरे कोने में
मन को देख लिया है
खेलते हुए खेल
 आत्मा के आंगन में
और जान लिया है, वही है वह अनंतता जिसमें
फैलता और सिकुड़ता है मन का कैनवास....
काठ की गुड़िया जैसे एक के भीतर एक बंद है
बड़ी से छोटी होती हुई या छोटी से बड़ी होती हुई
 भीतर छिपा है
सूक्ष्म...से सूक्ष्मतर...सूक्ष्मतम होता
प्रेम का तन्तु
और घेरे है वही
स्थूल... से स्थूलतर... और स्थूलतम... होता
अनंत तक विस्तार है जिसका
वही प्रकाश है प्रकाशक भी
और
प्रकाशित कोई दूसरा है क्या... ? 

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर बहुत सुन्दर ........सही कहा है आपने.......मन कभी तो विस्तृत आकाश सा है और कभी बहुत बारीक.......शानदार|

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  2. वाह मन को भेद दिया आपने तो।

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  3. बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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  4. लाजवाब !!!!!
    भीतर छिपा है
    सूक्ष्म...से सूक्ष्मतर...सूक्ष्मतम होता
    प्रेम का तन्तु
    और घेरे है वही
    स्थूल... से स्थूलतर... और स्थूलतम... होता
    अनंत तक विस्तार है जिसका
    वही प्रकाश है प्रकाशक भी
    और
    प्रकाशित कोई दूसरा है क्या... ?
    बहुत ही गहन बातें ....

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