मंगलवार, सितंबर 6

बस उसमें से प्यार बहेगा


बस उसमें से प्यार बहेगा

दुनिया बहुत पुरानी फिर भी
नई नवेली दुल्हन सी है,
मनुज अभी-अभी आया है
हुई पुरानी उसकी छवि है !

हर सुबह के साथ नई हो
पुनः जन्म जैसे ले लेती,
विस्मित हुआ देख इसे जो
नूतन उसको भी कर देती !

वृक्ष, पवन, पौधे, पहाड सब
सहज हुए से जिया करते,
मानव लेकिन सब बन जाते
बन के मनुज कहाँ हैं रहते !

जो उगता है मरता भी है
प्रकृति सहज भाव से सहती,
लेकिन मानव डरता हरदम
मृत्यु इसे छलावा देती !

मृत्यु इसके लिए बड़ी है
उसकी आँखों में न झांकता,
सदा भुलाये रखता उसको
गीत अमरता के है गाता !

जीवन को भी चूक गया है
भय, आशंका, अकुलाहट में,
प्रेम की धारा सुखा दी इसने
अंगारों में घबराहट के !

मृत हो चाहे जीवित प्राणी
मृत्यु का कोई जोर नहीं है,
इतना सा सच अनुभव कर ले
मानव का कोई छोर नहीं है !

सदा निशंक खिला सा रहके
जीवन का रस उसे मिलेगा,
रस की धार स्वतः निर्झर सी
बस उसमें से प्यार बहेगा !

 




9 टिप्‍पणियां:

  1. इतना सा सच अनुभव कर ले
    मानव का कोई छोर नहीं है !

    खूबसूरत प्रस्तुति ||
    बधाई ||

    जवाब देंहटाएं
  2. मानव का कोई छोर नहीं है !

    सदा निशंक खिला सा रहके
    जीवन का रस उसे मिलेगा,
    रस की धार स्वतः निर्झर सी
    बस उसमें से प्यार बहेगा !
    bahut sundar bhavpoorn abhivyakti.badhai

    जवाब देंहटाएं
  3. मृत हो चाहे जीवित प्राणी
    मृत्यु का कोई जोर नहीं है,
    इतना सा सच अनुभव कर ले
    मानव का कोई छोर नहीं है !

    बिलकुल सही बात काही आपने।

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. मृत हो चाहे जीवित प्राणी
    मृत्यु का कोई जोर नहीं है,
    इतना सा सच अनुभव कर ले
    मानव का कोई छोर नहीं है !

    ....बहुत प्रेरक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति... आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. रस की धार स्वतः निर्झर सी
    बस उसमें से प्यार बहेगा !

    bahut sunder soch ...
    badhai..

    जवाब देंहटाएं
  6. सदा निशंक खिला सा रहके
    जीवन का रस उसे मिलेगा,
    रस की धार स्वतः निर्झर सी
    बस उसमें से प्यार बहेगा !

    सही दृष्टिकोण रखा है सुंदर कविता के माध्यम से. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  7. शानदार......बेहतरीन............जीवन के यतार्थ का दर्शन दिखा दिया आपने.......बहुत खूब|

    वक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें|

    जवाब देंहटाएं