शुक्रवार, सितंबर 7

कौन जाने


कौन जाने

कविता क्या है
उसका भविष्य क्या है
कौन उलझता है इन प्रश्नों में
जब की जीवन का ही पता नहीं
कौन रख गया हमें इक्कीसवीं सदी के
इस भयानक दौर में
कुछ भी तो स्पष्ट नहीं है...
जहरीला धुआँ कोयले की खदानों का
दूषित कर रहा है
निकल आता है कोई न कोई जिन
हर दूसरे दिन जाने कहाँ से...
इन जिनों के मालिक
कैसे सोते होंगे रात...  
दुनिया जैसी भी है
काम चला ही लेती है
हर पीढ़ी जैसे-तैसे...
और विरासत में दे जाती है
कुछ और दर्द व पीडाएं
अपनी संतानों को... 

9 टिप्‍पणियां:

  1. काम चलता ही जा रहा है ... मार्मिक प्रस्तुति

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  2. विचारणीय अभिव्यक्ति.....

    सादर
    अनु

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  3. संगीताजी, व अनु जी स्वागत व आभार...

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  4. ये जीवन का चक्र ऐसे ही चलता रहता है ...

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  5. जिसमें जान हो उसका बदलना तय है,और कविता में "बहुत जनों" की जान बसती हैं |

    बहुत ही सार्थक रचना |

    सादर |

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  6. संध्या जी, दिगम्बर जी, मंटू जी,व रीना जी अप सभी का स्वागत व आभार !

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  7. बहुत गहन और यतार्थपरक रचना......हैट्स ऑफ इसके लिए।

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