ढाई आखर सभी पढ़ रहे
प्रेम अमी की एक बूँद ही
जीवन को रसमय कर देती,
दृष्टि एक आत्मीयता की
अंतस को सुख से भर देती !
प्रेम जीतता आया तबसे
जगती नजर नहीं आती थी,
एक तत्व ही था निजता में
किन्तु शून्यता ना भाती थी !
स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति
प्रीति बही थी दोनों ओर,
वह दिन और आज का दिन है
बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !
हुए एक से दो थे जो तब
एक पुन: वे होना चाहते,
दूरी नहीं सुहाती पल भर
प्रिय से कौन न मिलन माँगते !
खग, थलचर या कीट, पुष्प हों
प्रेम से कोई उर न खाली,
मानव के अंतर ने जाने
कितनी प्रेम सुधा पी डाली !
करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य
ढाई आखर सभी पढ़ रहे
अहंकार की क्या हस्ती फिर,
प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !
bahut hi sundar rachan - prem ki gehrai ko darshaati rahi
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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