बुधवार, जुलाई 16

ढाई आखर सभी पढ़ रहे

ढाई आखर सभी पढ़ रहे



 प्रेम अमी की एक बूँद ही

जीवन को रसमय कर देती, 

 दृष्टि एक आत्मीयता की 

अंतस को सुख से भर देती ! 


प्रेम जीतता आया तबसे 

जगती नजर नहीं आती थी, 

एक तत्व ही था निजता में 

किन्तु शून्यता ना भाती थी !


 स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति  

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है 

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !


हुए एक से दो थे जो तब 

 एक पुन: वे  होना चाहते,  

दूरी नहीं सुहाती पल भर 

प्रिय से कौन न मिलन माँगते ! 


खग, थलचर या कीट, पुष्प हों 

प्रेम से कोई उर न खाली, 

मानव के अंतर ने जाने 

कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! 


करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य 

ढाई आखर सभी पढ़ रहे  

अहंकार की क्या हस्ती फिर, 

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !  


2 टिप्‍पणियां: