मंगलवार, मार्च 5

मन बहता हुआ इक धारा था जब


मन बहता हुआ इक धारा था जब


डोलने लगे थे पात पीपल के
जरा नजर भर के निहारा था जब,
तरल हो गया था आलम सारा
निःशब्द होकर उसे पुकारा था जब !

है भी जो, नहीं भी, नजर आया था
दूर सागर का किनारा था जब,
झील का चाँद किसी की खबर लाया
पार उतरने को शिकारा था जब !

मिलीं ढेर नसीहतें, संग उसके
दिल को बस यही न गवारा था जब,
बहा ले गया गम, खुशियाँ सारी
मन बहता हुआ इक धारा था जब ! 

10 टिप्‍पणियां:

  1. गहन और बेहद खूबसूरत भाव ....
    बहुत सुंदर रचना अनीता जी ....

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  2. हाँ, निःशब्द की पुकार और उसी की आवाज में ऐसी क्र गुजरने की शक्ति है। निःशब्द बिना बोले ही सब कुछ बोलता है फिर तो पत्ता क्या चीज है यह ब्रह्माण्ड भी डोलता है ...... बहुत ही प्यारी और सार गर्भित रचना आभार इसकी प्रस्तुति के लिये…

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  3. बहुत गहन भावपूर्ण रचना...आभार

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  4. झील का चाँद किसी की खबर लाया
    पार उतरने को शिकारा था जब !

    बहुत खूब,,, सुन्दर अहसासों से भरी
    आभार !

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  5. तरल हो गया था आलम सारा
    निःशब्द होकर उसे पुकारा था जब !.... बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ ...एक बहुत भावपूर्ण कविता!

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  6. उदासी का मर्म लिए है रचना गहरी वेदना से संसिक्त है प्रेम से सराबोर ,हाँ वायुवीय प्रेम से ....

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