गुरुवार, मार्च 5

विपासना का अनुभव -२

विपासना का अनुभव 

ठीक छह बजे घंटा बज गया और सभी डाइनिंग हॉल में गये जिसमें तीन ओर दीवारों से सटी हुई सीमेंट की पतली मेजें थीं, जिनपर काला मोजाइक लगा था तथा जिनके सामने प्लास्टिक की कुर्सियां रखी हुई थीं. चौथी तरफ लम्बा सा बेसिन था, कुछ-कुछ दूरी पर कई नल लगे थे, बर्तन धोने का सामान रखा था, जहाँ नाश्ते व खाने के बाद सभी को स्वयं बर्तन धोकर रखने होते थे. कमरे के बीचोंबीच लकड़ी की दो मेजें सटाकर रखी गयी थीं जिनपर बर्तन व भोजन की सामग्री थी. उस दिन ‘पोहा’ मिला जो स्वादिष्ट था तथा हल्की मिठास लिए था. बाद के दिनों में भी कई व्यंजनों में मीठे से खबर मिलती रही थी कि बंगाल में हैं, जहाँ छाछ में भी मीठा डाला जाता है.
सात बजे हमें दफ्तर के बायीं तरफ स्थित दो तल्ले पर स्थित पुराने ध्यान कक्ष में ले जाया गया, जहाँ कुछ औपचारिक बातें समझाई गयीं. एक फिल्म भी दिखायी गयी जिसमें केंद्र में रहने के नियमों की जानकारी दी गयी थी. अगले दस दिनों तक हमें सदा ही मौन रहना होगा, धीरे-धीरे चलना होगा, किसी से नजर नहीं मिलानी होगी. स्वयं को पूर्ण एकांत में ही समझना है. किसी भी तरह की अन्य साधना इन दस दिनों में भूलकर भी नहीं करनी है. कोई मन्त्र जप या किसी भी तरह का ताबीज, अगूँठी आदि धारण नहीं करनी है. किसी की शरण में नहीं जाना है. केवल अपनी शरण में रहना है. समय से कुछ पहले ही हॉल में आ जाना है. पांच शीलों का पालन बहुत कठोरता से करना है. पांच शील हैं- चोरी न करना, असत्य भाषण न करना, किसी भी तरह का नशा न करना, किसी भी तरह की हिंसा न करना, व्यभिचार न करना. वहाँ से हमें मुख्य धम्मा हॉल में ले जाया गया, जो काफी बड़ा था. महिला साधक दायीं तरफ तथा पुरुष साधक बायीं ओर बैठते थे. सभी को निश्चित स्थान व आसन दिया गया पूरे साधना काल में उसी स्थान पर व उसी आसन पर बैठना था. मुख्य आसन के अलावा वहाँ कई आकार के छोटे बड़े तकिये थे जिन्हें देखकर पहले आश्चर्य हुआ था पर बाद के दिनों में पैरों में दर्द होने पर सभी को उनका उपयोग करते देखा. आखिर दिन भर में ग्यारह-बारह घंटे नीचे बैठना था.

 रात्रि नौ बजे वहाँ से हम कमरे में आ गये. मच्छर दानी लगाने तथा सोने के लिए तैयारी करने में पांच-सात मिनट लगे और कमरे की बत्ती बुझाकर सोने की चेष्टा की तो पहले नई जगह के कारण कुछ देर नींद नहीं आयी, फिर रूममट के खर्राटों की आवाज के कारण, लेकिन बाद में पता नहीं कब नींद आ गयी. सुबह ठीक चार बजे घंटे की आवाज से नींद खुली तो उठकर बिस्तर ठीक किया, पानी पीया और नित्य क्रिया से निवृत्त होकर समय पर धम्मा हॉल में पहुंची. सवा चार बजे पुनः घंटा बजता था तथा उसके बाद भी धर्मसेविका सभी कमरों के सामने से हाथ में घंटी लिए बजाती हुई एक चक्कर लगाती थीं ताकि कोई सोता न रह जाये. उसके बाद भी यदि कोई नहीं उठा तो कमरे में झांककर देखती थीं. अब हर रोज सुबह का यही क्रम था.   
क्रमशः  

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