शुक्रवार, मार्च 6

विपासना का अनुभव -३

विपासना का अनुभव 

पहले साढ़े तीन दिन श्वास पर ध्यान देने की विधि समझायी गयी, जिसे आना-पान कहते हैं. अगले साढ़े छह दिन विपश्यना का अभ्यास कराया गया जिसमें शरीर पर होने वाले स्पंदनों को समता भाव से देखना होता है. हर स्पंदन मन के भीतर गहराई में उठते किसी न किसी भाव अथवा विचार से जुड़ा होता है. हर भाव या विचार राग, द्वेष अथवा मोह जगाता है. राग जगने पर सुखद संवेदना होती है, द्वेष जगने पर दुखद संवेदना होती है तथा मोह जगने पर केवल संवेदना मात्र होती है. यदि साक्षी भाव से हमें संवेदनाओं को देखना आ जाये तो धीरे-धीरे मन के अंतरतम में छिपे संस्कारों से हम मुक्त हो सकते हैं. जितने समय हम समता भाव में रहते हैं कोई नया संस्कार नहीं बनाते तथा पुराने संस्कार क्षण-प्रति क्षण उदय होते हैं व अस्त होते हैं, भगवान बुद्ध की यह खोज थी कि देह अथवा चित्त पर प्रतिक्षण कुछ न कुछ उदय होता है और अस्त होता है. हम केवल ऊपर-ऊपर से देखते हैं तो दुःख का कारण बाहरी घटना, व्यक्ति या परिस्थिति को मानते हैं जिसके कारण भीतर द्वेष उठा, वास्तव में दुःख का कारण वह सुखद या दुखद संवेदना है, जिसे देखकर हम उसी क्षण दुःख से पार जा सकते हैं. यही विपश्यना का मुख्य सिद्धांत है.
प्रतिदिन सुबह छह बजे गोयनका जी की धीर-गम्भीर आवाज में ‘मंगल पाठ’ होता था बुद्ध वाणी का. जो पाली में था तथा जिसका अर्थ पूरी तरह समझ में नहीं आता था. शेष समय में भी गोयनका जी बुद्ध के धम्म पदों का उपयोग करते थे तथा बीच-बीच में स्वरचित दोहों के द्वारा उनका अर्थ स्पष्ट करते जाते थे. ठीक साढ़े छह बजे घंटा बजता था जिसका अर्थ था नाश्ते का समय हो गया है. होना तो यह चाहिए था कि नहाकर नाश्ता करें पर सभी पहले भोजनालय में पहुंच जाते जहाँ अक्सर सूजी का ढोकला, मीठी चटनी, काले चने की घुघनी, कोई एक फल, चाय, दूध मिला करता था. कभी-कभी पोहा व दलिया भी मिला जिसमें दूध नहीं था बल्कि हल्की मिठास थी. नाश्ते के बाद कुछ देर टहलने के बाद स्नान की तैयारी.

आठ बजे से कुछ क्षण पूर्व ही पुनः सभी हॉल में पहुँचे, गोयनका जी की आवाज में श्वास पर ध्यान देने की विधि सिखाई गयी. शुद्ध श्वास पर ध्यान देना था जिससे मन अपने आप केन्द्रित होता जाता था. नौ बजे के बाद पांच मिनट का विश्राम लेने को कहा गया. विश्राम का अर्थ था हॉल के बाहर बने पक्के फुटपाथों पर टहलना जिससे पैरों की जकड़न खुल जाती थी. कुछ लोग कमरे की तरफ भागते ताकि पांच मिनट लेट कर कमर सीधी कर लें. पुनः साधना का क्रम चला तो समय लम्बा खिंचता चला गया. गोयनका जी अपनी स्पष्ट व प्रखर वाणी में निर्देश दे रहे थे. पुरुषार्थ और पराक्रम करने की प्रेरणा भी बारी-बारी से हिंदी व अंग्रेजी भाषों में दे रहे थे. साधकों में विभिन्न राज्यों के तथा देशों के लोग थे, ज्यादातर स्थानीय थे.  ग्यारह बजे घंटे की आवाज से यह सत्र खत्म हुआ. यह दोपहर के भोजन का समय था. सात्विक, शाकाहारी भोजन परोसा जाता था, जिसमें पीली दाल, एक आलू की सब्जी जिसमें कभी मटर, कभी सफेद चने, कभी कटहल या टमाटर आदि होते थे. एक सूखी सब्जी, चावल तथा रोटी होती थी. छाछ व मीठी चटनी भी अक्सर मिलती थी. 

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