शुक्रवार, अगस्त 19

झर जाती हर दुःख की छाया

झर जाती हर दुःख की छाया

सभी स्वर्ग क्षण भंगुर होंगे
 नर्क सभी अनंत हैं होते,
दुःख में समय न कटता पल भर
सुख के क्षण बहते ही जाते !

सुख बँटना ही सदा चाहता
सहज फैलता ही जाता है,
दुःख में भीतर सिकुड़े छाती
सुख विस्तीर्ण हुआ बढ़ता है !

आज सोचते हैं हम कल की
सदा व्यवस्था में ही बीते,
प्रेम जहाँ वहीं सुख पलता
यह पल होता पर्याप्त उसे  !

नहीं सताती कल की चिंता
परस प्रेम का जिसने पाया,  
खो जाता अतीत, भावी सब
झर जाती हर दुःख की छाया !

सूना उर ! हम जग से भरते
खालीपन भीतर का अपना,
एक ही भाव शाश्वत भीतर
शेष सब ज्यों भोर का सपना  !

प्रेम ही है वह दर जहाँ से
जीवन की कलियाँ खिलती हैं,
साझीदार मिले जब कोई
जीवन की धारा पलती है !



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