रविवार, सितंबर 29

कैसे-कैसे डर बसते हैं




कैसे-कैसे डर बसते हैं


कैसे-कैसे डर बसते हैं
चैन जिगर का जो हरते हैं !

बीत गया जो बस सपना था
यूँ ही बोझ लिए फिरते हैं,
एक दिवस सब कुछ बदलेगा
झूठी आस किया करते हैं !

कोई तो हम जैसा होगा
व्यर्थ सभी खोजा करते हैं,
अंतर पीड़ा से भरने हित
तिल का ताड़ बना लेते हैं !

जैसे कोई कर्ज शेष हो
जग का मुख ताका करते हैं,
कैसे पार लगेगी नैया
तट पर जा सोचा करते हैं !

किस्मत ऐसी ही लिख लाये
उस पर दोष मढ़ा करते हैं,
चले कभी न स्वयं जिस पथ पर
दूजों से आशा करते हैं !

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-09-2019) को " गुजरता वक्त " (चर्चा अंक- 3474) पर भी होगी।

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  3. सत्य लिख दिया ...
    खुद नहीं चलते जिस पथ पर दूजे के चलने की आशा करते हैं ... इंसान ऐसा ही है ... स्वार्थी, बहाना खोजने वाला ... किस्मत का नाम ले कर दूसे को दोष देने वाला ... सार्थक रचना है ... गहरा अर्थ लिए ...

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  4. बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति आदरणीया

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  5. तैर कर ग़र तू निकलता, नाव में तब पाँव रखता,
    डूबता तू ग़र कहीं तो, मैं नदी से दूर रहता.

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