एक पाती मृणाल ज्योति के नाम 
बरसों पहले जब तुम्हारा
जन्म ही हुआ था 
नन्हे थे तुम अभी नामघर में
पल रहे थे 
एक दिन अवसर मिला था
मुलाकात का 
सिलसिला वह रुका नहीं और...
 एक रिश्ता बनता गया 
तुमसे किसी गहरे जज्बात का !
साक्षी बनी उस दिन की जब 
दुलियाजान क्लब में एक मेला
लगा था 
अनेक तरह के सबने स्टाल
लगाये 
नेहरू मैदान तक एक बार
जुलूस भी निकला था 
राखियाँ बनाकर क्लब में
लगाई थीं दुकानें 
ऐसे ही न जाने कितने हैं
अफसाने 
सफाई अभियान में झाड़ू लगाया
स्टेज पर कार्यक्रम का
संचालन किया 
राजगढ़ में बनी साक्षी नई शाखा
की 
भाग लिया 'परिवार' के
कार्यक्रम में 
दुलियाजान व डिब्रूगढ़ में 
बच्चों को कुछ माह हिंदी
पढ़ाई 
योग व प्राणायाम की विधि
सिखाई 
शिक्षकों के साथ भी बिताये
कुछ पल 
पहचानें वे स्वयं को दिया
इसके लिए संबल
आज जाने की बेला है 
मन में यादों का एक रेला है
समय-समय पर कितनी मासूम
आवाजों ने तुम्हें पुकारा है 
आज युवा हो गये हो 
अनगिनत समर्थ हाथों ने
तुम्हें संवारा है 
इसी तरह तुम्हें आगे भी
बलवान होना है 
अपने पैरों पर खड़े ही नहीं
होना 
हर बच्चे की आशाओं पर
कुर्बान होना है !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी यह रचना दिल के बहुत करीब लगी । "नामघर' मंदिर को ही कहते हैं ना...बचपन की स्मृतियाँ ताजा हो आई । बहुत सुन्दर ..।
जवाब देंहटाएंजी हाँ, नामघर मन्दिर को ही कहते हैं, स्वागत व आभार !
हटाएं