शुक्रवार, जनवरी 15

सहज है जीवन भूल गए

सहज है जीवन भूल गए 
जग को जहाँ सँवारा हमने 
मन पर धूल गिरी थी आकर, 
जग पानी पी-पी कर धोया 
मन का प्रक्षालन भूल गए !

नाजुक है जो जरा ठेस से 
आहत होता किरच चुभे गर, 
दिखता आर-पार भी इसके 
कांच ही है यह भूल गए !

तुलना करना सदा व्यर्थ है 
दो पत्ते भी नहीं एक से, 
व्यर्थ स्वयं को तौला करते 
सहज है जीवन भूल गए ! 

बना हुआ अस्तित्व, मिला सब 
दाता ने है दिया भरपूर, 
खो नहीं जाए लुट न जाए 
चैन की बंसी भूल गए !

इक दिन सब अच्छा ही होगा 
यही सोचते गई उमरिया,  
मधुर हँसी, स्वजनों का साथ 
अब भी पास है भूल गए !
 

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर एवं सारगर्भित संदेशों को प्रस्तुत करती कृति..

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  2. दीप तले अंधेरा ... ऐसा ही तो जीवन बीतता जाता है क्योंकि ये भूलें ही हमें भटकाती रहती है ।

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    1. सही कहा है आपने अमृता जी, स्वागत व आभार !

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  3. तुलना करना व्यर्थ है ... ये सच है प्राकृति ने स्वीकार किया है सहज ही इस अंतर को ... काश इंसान भी ऐसे सहज रहे ...

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