गुरुवार, अक्तूबर 27

प्रकट और अप्रकट

प्रकट और अप्रकट 


जगत 

बुना है 

प्रकट और अप्रकट 

  तन्तुओं से 

मन 

कुछ-कुछ ज़ाहिर होता है कर्मों से 

कुछ छिपा ही रहता है भीतर 

कितना छुपाना है 

कितना दिखाना 

शायद यह सीख लिया है 

सहज ही कुदरत से 

जड़ें छिपी रहती हैं 

भूमि में दूर तक अंधकार में 

और ऊपर फूल खिलाता है पेड़ 

मन की जड़ें भी फैली हैं 

रिश्तों, वस्तुओं, स्मृतियों में 

ना जाने कितने जन्मों की 

अनंत की छाँव में यह खेल चलता है 

यह धूप-छाँव का खेल ही जीवन है 

हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता है ! 


12 टिप्‍पणियां:

  1. हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता........सब कुछ.......मनभावन

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  2. सच में जीवन ऐसा ही है। सुन्दर भावाभिव्यक्ति।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4594 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

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